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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३९५ द्रव्यमसंख्यातगुणम्।---इत्येकादशसु स्थानेषु गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यस्य प्रतिस्थानमसंख्यातगुणितत्वमुक्तम्।" (जी.त.प्र./ गो.जी. / गा.६६-६७)। इस प्रकार श्री केशववर्णी ने चौदह गुणस्थानों में गुणश्रेणिनिर्जरा के ग्यारह स्थान बतलाये हैं। उन्होंने सातिशय मिथ्यादृष्टि के अतिरिक्त असंयतसम्यग्दृष्टि में भी गुणश्रेणिनिर्जरा बतलायी है। अतः उनके अनुसार गुणश्रेणिनिर्जरा के ११ स्थान हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि गुणस्थान ही गुणश्रेणिनिर्जरा के स्थान हैं। २.९. चतुर्दश गुणस्थानों में ध्यानादि के स्वामित्व का कथन तत्त्वार्थसूत्रकार ने ग्यारह गुणस्थानों में गुणश्रेणिनिर्जरा के प्ररूपण के अतिरिक्त चौदह गुणस्थानों में ध्यानभेदों के स्वामित्व का और प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिजिन पर्यन्त नौ गुणस्थानों में परीषहभेदों की पात्रता का भी कथन किया है। इसके अतिरिक्त प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक शरीर के उत्पादन की योग्यता का निर्देश किया है तथा दसवें, ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थानों के आधारभूत चारित्रों पर भी प्रकाश डाला है, साथ ही संयमासंयम एवं सरागसंयम के नाम से संयतासंयत एवं प्रमत्तसंयत गुणस्थानों को देवायु के बन्ध का कारण बतलाया है। यथा 'तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्' (त.सू.-दि.९/३४, श्वे. ९/३५) इस सूत्र में 'अविरत' शब्द से अविरति-साधर्म्यवाले आदि के चार गुणस्थानों का निर्देश करते हुए मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत एवं प्रमत्तसंयत, इन छह गुणस्थानवी जीवों को आर्तध्यान का स्वामी बतलाया गया है। पूज्यपादस्वामी ने 'अविरता असंयतसम्यग्दृष्ट्यन्ताः' (स.सि./९/३४) इस व्याख्यान द्वारा स्पष्ट किया है कि 'अविरत' पद मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि पर्यन्त चार गुणस्थानों का सूचक है। माननीय पं० सुखलाल जी संघवी ने भी उपर्युक्त सूत्र का विवेचन करते हुए लिखा है-"प्रथम (अविरत) के चार (मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि) तथा देशविरत व प्रमत्तसंयत इन छह गुणस्थानों में उक्त आर्तध्यान संभव है।" (त.सू./वि.स./९/३१-३५/पृ. २२६)। "हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः' (त.स.-दि.९/३५, श्वे. ९/३६) यहाँ आदि के पाँच गुणस्थानों को रौद्रध्यान का पात्र कहा गया है। 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य' (९/३७) तथा 'उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' (९/३८), ये दोनों सूत्र केवल श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में हैं। इन दोनों सूत्रों से यह अर्थ प्रतिपादित होता है कि अप्रमत्तसंयत नामक सातवें से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें तक छह गुणस्थानों में धर्मध्यान होता है। पं० सुखलाल जी संघवी ने भी लिखा है Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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