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३९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ २.७. समवायांग का प्रमाण
श्वेताम्बर-आगम 'समवायांग' में गुणश्रेणिनिर्जरास्थानों को चौदह गुणस्थानों के ही अन्तर्गत बतलाया गया है। श्वेताम्बरमुनि उपाध्याय श्री आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्रजैनागम-समन्वय ग्रन्थ में 'तत्त्वार्थ' के उक्त गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र को समवायांग (१४/ १५) के निम्नलिखित चौदह-गुणस्थान-निर्देशक सूत्र पर आधारित बतलाया है
"कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा- ( मिच्छादिट्ठी, सासायणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी) अविरयसम्मादिट्ठी विरयाविरए पमत्तसंजए अप्पमत्तसंजए निअट्टिबायरे अनियट्टिबायरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खवए वा उवसंतमोहे खीणमोहे सजोगी केवली अयोगी केवली।"
___ डॉ० सागरमल जी ने कहा है कि समवायांग का यह सूत्र प्रक्षिप्त है। यह सही है, किन्तु इससे यह सिद्ध होता है कि उपाध्याय श्री आत्माराम जी ने 'तत्त्वार्थ' के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र को समवायांग के इस चतुर्दश-गुणस्थान-निर्देशक सूत्र पर आधारित माना है, अतः उनके मतानुसार उक्त सूत्र में वर्णित 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाएँ गुणस्थान ही हैं। २.८. जीवतत्त्वप्रदीपिका का प्रमाण
दिगम्बर-परम्परा के श्री केशववर्णी ने भी गुणश्रेणिनिर्जरा की आधारभूत 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाओं को गुणस्थान ही कहा है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड में ८ वी गाथा से लेकर ६५वीं गाथा तक चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का वर्णन करने के पश्चात् निम्नलिखित दो गाथाओं में गुणश्रेणिनिर्जरा के स्थानों का प्ररूपण किया गया है
सम्मत्तुप्पत्तीए सावयविरदे अणंतकम्मंसे। सणमोहक्खवगे कसायउवसामगे य उवसंते॥ ६६॥ खवगे य खीणमोहे जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा।
तविवरीया काला संखेजगुणक्कमा होति ॥ ६७॥ इन गाथाओं की व्याख्या करते हुए श्री केशववर्णी लिखते हैं
"एवंविधचतुर्दशगुणस्थानेषु स्वायुवर्जितकर्मणां गुणश्रेणिनिर्जरा तत्कालविशेषं च गाथाद्वयेनाह–प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तौ करणत्रयपरिणामचरमसमये वर्तमानविशुद्धि-विशिष्टमिथ्यादृष्टे: आयुर्वर्जितज्ञानावरणादिकर्मणां यद्गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यं ततः असंयत-सम्यग्दृष्टिगुणस्थान-गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम्। ततः देशसंयतस्य गुणश्रेणिनिर्जरा-द्रव्यमसंख्यातगुणम्। ततः सकलसंयतस्य गुणश्रेणिनिर्जरा
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