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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३९३ उसमें 'उपशमक' और 'क्षपक' इन दो सामान्यग्राही संज्ञाओं से उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी के १. अपूर्वकरण, २. अनिवृत्तिबादरसाम्पराय और ३. सूक्ष्मसाम्पराय ये तीन गुणस्थान संकेतित किये गये हैं। उक्त संज्ञाओं से ये ही तीन गुणस्थान ग्राह्य हैं, यह षट्खण्डागम के निम्नलिखित सूत्रों से प्रमाणित है१. "अपुव्वकरण-पविट्ठ-सुद्धिसंजदेसु अस्थि उवसमा खवा।" = अपूर्वकरण-प्रविष्ट-शुद्धिसंयतों में उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं। २. "अणियट्टि-बादर-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धिसंजदेसु अस्थि उवसमा खवा।" = अनिवृत्तिबादर-साम्परायिक-प्रविष्ट-शुद्धिसंयतों में उपशमक भी होते हैं और क्षपक भी। ३. "सुहुमसांपराइय-पविट्ठ-सुद्धिसंजदेसु अस्थि उवसमा खवा।" सूक्ष्मसाम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धि-संयतों में उपशमक और क्षपक दोनों हैं। __ (षट्खण्डागम / पु.१/१,१,१६-१८)। आचार्य अमृतचन्द्र के निम्नलिखित वचनों से भी उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है "अपूर्वकरणोपशमक-क्षपकानिवृत्तिबादरसाम्परायोपशमक-क्षपक-सूक्ष्मसाम्परायोपशमक-क्षपको ---।" ( आ.ख्या. / स.सा. / गा. ५०-५५ )। इससे भी सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणस्थानों में ही उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा बतलायी है तथा वे गुणस्थानसिद्धान्त से सम्यग्रूपेण अभिज्ञ थे। यहाँ यदि कहा जाय कि उक्त दस अवस्थाओं में परिगणित 'उपशमक' और 'क्षपक' अवस्थाओं के आधार पर उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी के तीन गुणस्थानों की कल्पना कर ली गयी है, तो यह कथन प्रत्यक्षप्रमाण के विरुद्ध होगा, क्योंकि उनमें से 'अनिवृत्तिबादर-साम्पराय' और 'सूक्ष्मसाम्पराय' गुणस्थानों का तत्त्वार्थसूत्र (९/ १२,९/१०) में शब्दशः उल्लेख है। परीषहों के प्रकरण में अपूर्वकरण गुणस्थान को 'बादरसाम्पराय' में ही शामिल कर लिया गया है, क्योंकि उसमें भी स्थूल कषाय का अस्तित्व होने से सभी परीषह संभव हैं। यह तथ्य स्पष्ट करता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार गुणस्थानों की उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी से भी सुपरिचित थे, अर्थात् उन्हें गुरुपरम्परा से गुणस्थानसिद्धान्त का परिपूर्ण उपदेश प्राप्त हुआ था। गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में 'अनन्तवियोजक' और 'दर्शनमोहक्षपक' शब्दों का प्रयोग भी तत्त्वार्थ-सूत्रकार की गुणस्थानसिद्धान्त में गहरी पैठ का परिचायक है। इसकी विवेचना आगे की जायेगी। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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