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________________ ३९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०५ नहीं हुआ है, वैसी ही कथा है जैसे कोई हाथी को साक्षात् खड़ा हुआ देखकर भी उसे इसलिए हाथी न माने कि उसके ऊपर 'हाथी' शब्द नहीं लिखा है । गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने इस कथा का अनुसरण इसलिए किया है, कि वे इस तरह यह सिद्ध कर सकें कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था, इसलिए षट्खण्डागम, कसायपाहुड, समयसार, भगवती - आराधना, मूलाचार आदि जिन दिगम्बरग्रन्थों में सम्यग्दृष्टि, श्रावक (देशविरत), विरत (संयत ) आदि अवस्थाओं के लिए 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है, वे तत्त्वार्थसूत्र (उक्त विद्वान् के अनुसार ईसा की तीसरी - चौथी शताब्दी) के बाद रचे गये हैं । किन्तु गुणस्थान-विकासवादी विद्वान् का तत्त्वार्थसूत्रोल्लिखित 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाओं को गुणस्थान न मानना प्रमाणविरुद्ध है, क्योंकि सम्पूर्ण दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में (यद्यपि श्वेताम्बरसाहित्य में गुणस्थानसिद्धान्त षट्खण्डागम से अनुकृत है ) 'सम्यग्दृष्टि', 'श्रावक', 'विरत' आदि अवस्थाओं को गुणस्थान ही कहा गया है और उनमें गुणस्थान का ही लक्षण व्याप्त है, अतः उनका गुणस्थान होना निर्विवाद है । २.५. सम्यग्दृष्टित्व आदि संवरादि के भी हेतु उक्त अवस्थाओं के गुणस्थान होने की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है वे केवल उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा का आधार नहीं हैं, अपितु कर्मप्रकृतियों के उत्तरोत्तर अधिक संवर का भी हेतु हैं, जैसा कि पूज्यपाद स्वामी के निम्नलिखित वचनों से प्रकट होता है - " इदं विचार्यते कस्मिन् गुणस्थाने कस्य संवर इति ? " (स. / सि./९/१) । उन अवस्थाओं में कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी उत्तरोत्तर अल्प होता जाता है और परीषहों के हेतु भी न्यून होते जाते हैं । उनमें क्रमशः उच्चतर चारित्र धारण करने का क्षमता आती जाती है और उच्चतर ध्यान की योग्यता का भी आविर्भाव होता जाता है। इस तरह वे मात्र गुणश्रेणिनिर्जरा की हेतुभूत आध्यात्मिक विशुद्धता की दस अवस्थाएँ नहीं हैं, अपितु सम्पूर्ण बन्ध और मोक्ष की प्रणाली के सोपानभूत गुणस्थान हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाओं के ये गुण 'तत्त्वार्थ' के विभिन्न सूत्रों में प्ररूपित किये हैं, जो आगे द्रष्टव्य हैं। अतः सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार सामने गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा पूर्णरूप में विद्यमान थी । २.६. उपशमक- क्षपक श्रेणियों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में चौथे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक ग्यारह गुणस्थानों का संक्षेप में उल्लेख किया है, यह पूर्व में दर्शाया जा चुका है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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