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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३९१ ही है और श्रावक ( देशविरत ) अवस्था सर्वत्र सम्यग्दर्शन-ज्ञानसहित-देशसंयमात्मक ही है, इत्यादि। अतः सिद्ध है कि आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँ और गुणस्थान अभिन्न हैं। सम्पूर्ण दिगम्बर एवं श्वेताम्बर साहित्य में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो कि 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाएँ गुणस्थान (मोक्षसोपान) नहीं हैं। अतः डॉ० सागरमल जी का उन्हें गुणस्थानों से भिन्न मानना अप्रामाणिक है। - आश्चर्य है कि तत्त्वार्थसूत्र में 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाओं के साथ 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग न होने से डॉक्टर सा० ने उन्हें गुणस्थान मानने से इनकार कर दिया, जब कि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि सम्पूर्ण दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में उन्हें गुणस्थान ही कहा गया है और वे गुणस्थानों के ही पारिभाषिक शब्द हैं। उन्होंने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र के प्रसंग में स्वयं लिखा है कि "इस सूत्र में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द, जैसे दर्शनमोह-उपशमक, दर्शनमोहक्षपक, (चारित्रमोह-) उपशमक, (चारित्रमोह-) क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, केवली (जिन) आदि उपलब्ध होते हैं।" (देखिये, पादटिप्पणी १५१)। वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि 'सम्यग्दृष्टि,' 'श्रावक', 'विरत' आदि अवस्थाओं में गुणस्थानों का ही लक्षण व्याप्त है। यह सब जानते हुए भी तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित इन अवस्थाओं को वे गुणस्थान मानने के लिए तैयार नहीं हुए। वे इस मान्यता पर अटल हैं कि गुणश्रेणीनिर्जरा की आधारभूत इन दस अवस्थाओं से ही आगे चलकर गुणस्थानसिद्धान्त विकसित हुआ है। किन्तु गुणश्रेणीनिर्जरासूत्र से अलग भी जीव की अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि चौदह अवस्थाओं का तत्त्वार्थसूत्र में उल्लेख हुआ है और वहाँ उनके उल्लेख का प्रयोजन गुणश्रेणी-निर्जरा का प्ररूपण नहीं है, अपितु उनमें चतुर्विध ध्यानों, बाईस परीषहों आदि के यथायोग्य स्वामित्व का प्ररूपण है। (देखिए , आगे शीर्षक २.९)। इस प्रकार गुणश्रेणिनिर्जरा की आधारभूत दस अवस्थाओं से अलग ‘अविरत', 'देशविरत' आदि चौदह अवस्थाओं का तत्त्वार्थसूत्र में उल्लेख होने से सिद्ध है कि उसमें चौदह गुणस्थानों की मान्यता पहले से ही उपलब्ध है। अतः यह मानना कि गुणस्थानसिद्धान्त तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित हुआ है, प्रमाणविरुद्ध है। तथापि गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने इस तथ्य की ओर से आँखें फेरते हुए घोषणा कर दी कि "उमास्वाति के 'तत्त्वार्थ' में गुणस्थान और सप्तभंगी की अनुपस्थिति स्पष्टरूप से सूचित करती है कि ये अवधारणाएँ उनके काल तक अस्तित्व में नहीं आयी थीं।" (जै.ध.या.स./ पृ.२४९-२५०)। 'तत्त्वार्थसूत्र' में उल्लिखित जो 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाएँ लक्षणतः गुणस्थान हैं, उन्हें केवल इसलिए गुणस्थान न मानना कि उनके साथ 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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