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३९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०५
उन्हें गुणस्थान कहने की बजाय 'आध्यात्मिक विशुद्धि की अवस्थाएँ' कहकर उनके गुणस्थान होने के सत्य का अपलाप करने की चेष्टा की है। किन्तु तत्त्वार्थ सूत्रकार ने उनके साथ 'आध्यात्मिक विशुद्धि की अवस्था' नाम का भी प्रयोग नहीं किया, अतः उन्हें इस नाम से भी व्यवहृत करना अप्रामाणिक है। इसके अतिरिक्त यह (आध्यात्मिक विशुद्धि की अवस्था ) पारिभाषिक (विशेषार्थसूचक ) शब्द भी नहीं है, अपितु परिभाषा (विशेषार्थ) ही है। इस परिभाषा का सूचक शास्त्रप्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द 'गुणस्थान' है । अतः 'सम्यग्दृष्टि', 'श्रावक', 'विरत' आदि अवस्थाओं को 'गुणस्थान' शब्द से अभिहित करना ही शास्त्रसम्मत शब्दव्यवहार है ।
इन अवस्थाओं के गुणस्थान होने का पहला प्रमाण तो यह है कि आगम में इन्हें सर्वत्र जीवसमास एवं गुणस्थान शब्दों से ही अभिहित किया गया है, किसी अन्य शब्द से नहीं। दूसरा प्रमाण यह है कि इनमें गुणस्थान का ही लक्षण व्याप्त है, किसी अन्य पदार्थ का नहीं। 'सम्यग्दृष्टि', 'श्रावक', 'विरत' आदि अवस्थाओं में जो सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र की तरतमता अर्थात् उत्तरोत्तर उत्कर्षयुक्त होने का गुण है, वही उनके गुणस्थान होने का लक्षण है । वीरसेन स्वामी ने मोक्ष के सोपानों को गुणस्थान कहा है - "मोक्षस्य सोपानीभूतानि चतुर्दश गुणस्थानानि ।" (धवला / ष.ख./पु.१ / १,१,२२/ पृ.२०१)। अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की उत्तरोत्तर विकसित अवस्थाओं का नाम गुणस्थान है । श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरि ने भी ज्ञानदर्शनचारित्ररूप परम्परा को 'गुणस्थान' शब्द से अभिहित किया है । यथा
'परम्परया ज्ञानदर्शनचारित्ररूपया मिथ्यादृष्टि-सास्वादनसम्यग्मिथ्यादृष्ट्यविरतसम्यग्दृष्टि-विरताविरत- प्रमत्ताप्रमत्त- 1 - निवृत्त्यनिवृत्तिबादरसूक्ष्मोपशान्त क्षीणमोह-सयोग्ययोगिगुणस्थानभेदभिन्नया गताः ।" ( ललितविस्तरा / 'सिद्धाणं - ' गाथा १/ पृ.३९४ ) ।
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इन प्रमाणों से 'सम्यग्दृष्टि' आदि अवस्थाओं के गुणस्थान होने की पुष्टि होती है। ये सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त अवस्थाएँ दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय से तथा ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षय से प्रकट होती हैं तथा सम्यग्दर्शनादिरूप विशुद्धिविशेष के कारण क्रमशः अधिकाधिक संवर, निर्जरा आदि मोक्ष साधक कार्यों का हेतु हैं । इसीलिए इन्हें मोक्षसोपान एवं मोक्षमार्ग की परम्परा कहा गया है । अत एव गुणस्थानों में ही उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । फलस्वरूप गुणश्रेणि- निर्जरासूत्र में गुणस्थानों को ही गुणश्रेणिनिर्जरास्थान कहा गया है, किसी अन्य को नहीं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत आदि अवस्थाएँ दो-दो लक्षणवाली नहीं हैं, जिनमें से एक को 'गुण श्रेणिनिर्जरा का स्थान' या ‘आध्यात्मिक विकास की अवस्था' कहा जाय और दूसरी को 'गुणस्थान' उन सब का एक-एक ही लक्षण है । जैसे, 'सम्यग्दृष्टि' अवस्था सर्वत्र सम्यग्दर्शनज्ञान - लक्षणात्मक
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