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अ०१० / प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३८९ की सूचना दी है । 'उपशमक' और 'क्षपक' शब्द उपशमकश्रेणी और क्षपक श्रेणी के आद्य तीन गुणस्थानों के सूचक हैं।
यदि तत्त्वार्थसूत्रकार को उपर्युक्त दो-दो अवस्थाओं से उपशमक और क्षपक श्रेणियाँ अभिप्रेत न होतीं, तो जैसे एकमात्र 'दर्शनमोहक्षपक' शब्द से दर्शनमोह का क्षय सूचित कर दिया गया है, वैसे ही एकमात्र 'चारित्रमोहोपशमक' शब्द से चारित्रमोह का उपशम और केवल 'चारित्रमोहक्षपक' शब्द से चारित्रमोह का क्षय सूचित कर दिया जाता, उपशान्तमोह और क्षीणमोह अवस्थाओं के उल्लेख की आवश्यकता न होती ।
तात्पर्य यह कि तत्त्वार्थसूत्रकार को उपशमक और क्षपक श्रेणियाँ मान्य थीं और यह भी मान्य था कि जीव क्षायोपशमिकचारित्रवाले अप्रमत्तसंयत - गुणस्थान से उपशम श्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता है । उपशमश्रेणी पर आरूढ़ होनेवाला उपशमकाल के समाप्त होने पर उससे पतित होकर क्षायोपशमिक - चारित्रवाले गुणस्थान में अथवा उससे होते हुए और भी नीचे के गुणस्थान में पहुँच जाता है । किन्तु जो जीव उसी क्षायोपशमिक- चारित्रवाले अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान से क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता है, वह चारित्रमोह का क्षपण करते हुए क्षीणमोहगुणस्थान प्राप्त कर लेता है, पश्चात् 'मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ' (त.सू./ १० / १ ) इस नियम के अनुसार 'जिन' हो जाता है । इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार चारित्रमोह का क्षय क्षयोपशमपूर्वक मानते हैं, न कि उपशमपूर्वक, अतः गुणस्थानविकासवादी विद्वान् की यह धारणा अतर्कसंगतरूप से कपोलकल्पित है कि तत्त्वार्थसूत्रकार दर्शनमोह और चारित्रमोह का पहले उपशम और बाद में क्षय मानते हैं ।
इन प्रमाणों और युक्तियों से यह भली-भाँति सिद्ध हो जाता है गुणनिर्जरासूत्र में आध्यात्मिक अवस्थाओं का विकासक्रम सूचित नहीं किया गया है, अपितु विभिन्न गुणस्थानों अथवा उनकी विशिष्ट अवस्थाओं में कालविशेष में होनेवाले विशुद्ध परिणामों
प्रकर्ष से उसी गुणस्थान की पूर्वावस्था की अपेक्षा अथवा अन्य गुणस्थान की अपेक्षा जो असंख्येयगुणनिर्जरा होती है, उसका ज्ञापन किया गया है। इस प्रकार गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में गुणस्थानों के ही नामों, उनकी विशिष्ट अवस्थाओं तथा गुणस्थानसिद्धान्त के ही अनुसार उत्तरोत्तर असंख्येयगुणनिर्जरा का वर्णन है । अतः तत्त्वार्थसूत्रकार गुणस्थानसिद्धान्त से सुपरिचित थे।
२.४. 'सम्यग्दृष्टि' आदि में गुणस्थान का लक्षण विद्यमान
उपर्युक्त गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में वर्णित सम्यग्दृष्टि आदि अवस्थाओं के साथ तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग नहीं किया, इसलिए डॉक्टर सागरमल जी ने
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