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३८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ ६. तत्त्वार्थसूत्रकार ने औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र को भी जीव का स्वतत्त्व बतलाया है-'सम्यक्त्वचारित्रे' (त.सू./२/३)। गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उपशमक और उपशान्तमोह शब्दों के द्वारा औपशमिकचारित्र का कथन तो किया गया है, किन्तु औपशमिक सम्यक्त्व का कथन नहीं है। अतः गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र को आध्यात्मिक अवस्थाओं के विकासक्रम का सूचक नहीं माना जा सकता।
७. गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उल्लिखित अवस्थाओं के क्रमानुसार ही पूर्वावस्था से उत्तर अवस्था का विकास माना है। अतः 'उपशान्तमोह' के बाद 'क्षपक' का उल्लेख होने से उन्होंने यह धारणा बनायी है कि तत्त्वार्थसूत्रकार दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों का पहले उपशम मानते हैं, फिर क्षय। किन्तु जैसे चारित्रमोह के प्रसंग में 'क्षपक' के पूर्व 'उपशान्तमोह' का उल्लेख है, वैसे ही 'दर्शनमोहक्षपक' के पूर्व 'उपशान्तदर्शनमोह' का उल्लेख नहीं है। इससे इस धारणा की पुष्टि नहीं होती कि तत्त्वार्थसूत्रकार दर्शनमोह का पहले उपशम मानते हैं, फिर क्षय। तथा सूत्र में चारित्रमोह की अनन्तानुबन्धी-प्रकृतियों के उपशमपूर्वक क्षय का उल्लेख नहीं है, इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को चारित्रमोह का उपशमपूर्वक क्षय इष्ट नहीं है।
८. एक प्रश्न विचारणीय है। उपशान्तमोह अवस्था में भी मोहनीय कर्म का उदय नहीं रहता और क्षीणमोह अवस्था में भी। उपशान्तमोह-अवस्था में भी सातावेदनीय के अतिरिक्त समस्त कर्मों का आस्रव-बन्ध रुक जाता है और क्षीणमोह-अवस्था में भी। तब क्षीण-मोह-अवस्था के बाद ही 'जिन' अवस्था क्यों प्राप्त होती है, उपशान्तमोह अवस्था के बाद क्यों नहीं? इसका कारण यह है कि उपशान्त-अवस्था या उपशमअवस्था का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है। अन्तर्मुहूर्त के बाद कषाय का उदय होने पर वह समाप्त हो जाती है और मुनि क्षायोपशमिक विरत-अवस्था में पहुँच जाता है। कदाचित् उससे नीचे भी जा सकता है। अतः जब क्षायिकसम्यग्दर्शन-सहित क्षायोपशमिक-चारित्रवाला 'विरत', चारित्रमोह का क्रमशः क्षय करते हुए क्षीणमोह हो जाता है, तब दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उदय का अवसर न रहने से आगे बढ़ता है और 'जिन' अवस्था प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा उपशान्तमोहअवस्था के बाद 'जिन' अवस्था की प्राप्ति न बतलाये जाने से सिद्ध है कि वे 'विरत' (अप्रमत्त-विरत) अवस्था से उपशमक और क्षपक इन दो श्रेणियों का आरंभ होना तथा उपशमकश्रेणी पर आरूढ़ होकर उससे जीव का नियमतः पतित होना अथवा भवक्षय से मृत्यु को प्राप्त होना मानते हैं। उन्होंने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में चारित्रमोह के उपशम से संबंधित उपशमक और उपशान्तमोह तथा क्षय से सम्बन्धित क्षपक और क्षीणमोह इन दो-दो अवस्थाओं का उल्लेख करके भी उक्त दो श्रेणियों के अस्तित्व
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