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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३८७ अवस्था का स्वामी बनता है। इस प्रकार प्रायः क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि ही श्रावक और विरत अवस्थाओं को प्राप्त करता है। कदाचित् कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम-सम्यक्त्व और संयमासंयम अथवा संयम को एक साथ प्राप्त कर संयतासंयत (श्रावक) अथवा अप्रमत्तसंयत अवस्था में पहुँचता है, वह अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त प्रथमोपशमसम्यक्त्व में स्थित रहता है, उसके पश्चात् क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। अतः गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने जो श्रावक और विरत में नियम से औपशमिक सम्यग्दर्शन माना है, वह तत्त्वार्थसूत्रकार के मत के विरुद्ध है, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने सम्यग्दर्शन का क्षायोपशमिक भेद भी बतलाया है, और वह असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार अवस्थाओं में ही रह सकता है, क्योंकि उसके आगे केवल द्वितीयोपशमसम्यग्दर्शन या क्षायिकसम्यग्दर्शनवाला ही विकास कर सकता है। इसलिए यदि गुणस्थानविकासवादी विद्वान् के अनुसार गुणश्रेणिनिर्जरा की श्रावक और विरत अवस्थाओं में औपशमिक सम्यग्दर्शन के अस्तित्व को आध्यात्मिक विकास माना जाय, तो ऐसा आध्यात्मिक विकास गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र प्रदर्शित नहीं करता। इससे सिद्ध है कि गुणश्रेणिनिर्जरास्थान क्रमशः विकसित आध्यात्मिक अवस्थाएँ नहीं हैं। ३. केवल विरत-अवस्था से अनन्तवियोजक अवस्था विकसित नहीं होती, अपितु असंयतसम्यग्दृष्टि और श्रावक-अवस्था से भी विकसित होती है। अतः वह विकास की चौथी अवस्था नहीं है, अपितु असंयतसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा दूसरी अवस्था है। इसलिए गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने जो अनन्तवियोजक अवस्था को विकास की चौथी अवस्था माना है, वह गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र से प्रमाणित नहीं होती। इससे भी सिद्ध है कि उसमें प्रदर्शित अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की क्रमिक अवस्थाएँ नहीं हैं। ४. चूँकि अनन्तवियोजक अवस्था विकास की चौथी अवस्था नहीं है, इसलिए उसके बाद उल्लिखित दर्शनमोहक्षपक-अवस्था विकास की पाँचवीं अवस्था नहीं है। वह चौथी अवस्था भी नहीं है, क्योंकि दर्शनमोह का क्षय भी असंयतसम्यग्दृष्टि, श्रावक तथा विरत, इनमें से किसी में भी हो सकता है। ५. दर्शनमोह के क्षय के बाद चारित्रमोह-उपशमक अवस्था उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि दर्शनमोह का क्षय असंयतसम्यग्दृष्टि-अवस्था में भी होता है और उसके बाद अप्रत्याख्यानावरण-कषाय के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक श्रावक अवस्था प्रकट होती है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने श्रावक (संयमासंयम ) अवस्था को क्षायोपशमिकभाव बतलाया है, इसका प्रमाण पूर्व में दिया जा चुका है। अतः गुणस्थान-विकासवादी विद्वान् ने जो दर्शनमोहक्षपक-अवस्था से चारित्रमोह-उपशमक-अवस्था का विकास माना है, वह तत्त्वार्थसूत्रकार के मत के विरुद्ध है। यह भी इस बात का सबूत है कि गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में आध्यात्मिक अवस्थाओं के विकासक्रम का प्ररूपण नहीं है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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