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________________ ३८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ आध्यामिक विकास के कल्पित क्रम का निरसन १. आध्यात्मिकविकास का यह कल्पित क्रम तत्त्वार्थसूत्रकार के मत के विरुद्ध है। यदि गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र को उपर्युक्त प्रकार से ही आध्यात्मिक विकास के क्रम का प्रदर्शन माना जाय, तो उसमें क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक-चारित्र एवं क्षायोपशमिक-संयमासंयम ( श्रावकावस्था ) का किसी भी क्रम पर उल्लेख न होने से इन्हें आध्यात्मिक विकास की अवस्था नहीं माना जा सकता, जब कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने क्षायोपशमिकभाव-प्रदर्शक सूत्र में इन्हें क्षायोपशमिक ( कर्मों के क्षयोपशम से प्रकट होनेवाले ) भाव तथा सम्यक्त्व, चारित्र एवं संयमासंयम कहकर आत्मविकास की ही अवस्था बतलाया है। सूत्र इस प्रकार है "ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च।" (त.सू.-दि.२/५, श्वे.२/५)। अनुवाद-"मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान; कुमति, कुश्रुत और कु-अवधि (विभंग) ये तीन अज्ञान; चक्षु, अचुक्ष और अवधि ये तीन दर्शन; दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ तथा सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ये अठारह क्षायोपशमिकभाव जीव के भाव हैं।" . तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (२/५) में भी सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम को क्षायोपशमिक भाव कहा है- "--- सम्यक्त्वं चारित्रं संयमासंयम इत्येतेऽष्टादश क्षायोपशमिका भावा भवन्तीति।" यतः इन क्षायोपशमिक आध्यात्मिक अवस्थाओं का विकास उक्त सूत्र में प्रदर्शित नहीं किया गया है, अतः सिद्ध है कि वह आध्यात्मिक अवस्थाओं के विकासक्रम का प्रदर्शक सूत्र नहीं है। २. औपशमिक सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट स्थितिकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव सर्वप्रथम उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह उसमें अन्तर्मुहूर्त तक स्थित रहता है। उसके बाद यदि वह मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होता अथवा उपशमसम्यक्त्व के काल में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छह आवलि शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी के उदय से सासादनसम्यग्दृष्टि नहीं होता, तो सम्यक्त्वप्रकृति का उदय होने से क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसके बाद अप्रत्याख्यानावरणकषाय के क्षयोपशमयोग्य विशुद्ध परिणाम होने पर उक्त कषाय का क्षयोपशम कर श्रावक अवस्था प्राप्त करता है। तत्पश्चात् योग्य विशुद्ध परिणामों के प्रकर्ष से प्रत्याख्यानावरणकषाय का क्षयोपशम कर 'विरत' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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