________________
अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३८५ कि उक्त सूत्र में गुणस्थानों का ही उल्लेख है और किस गुणस्थानवाला जीव किस विशेषता से युक्त होने पर अपने पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती गुणस्थानवाले जीव से असंख्येयगुणनिर्जरा करता है, इस गुणस्थानसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। २.३. गुणश्रेणिनिर्जरा-स्थानक्रम में आध्यात्मिक-विकासक्रम घटित नहीं होता
गुणश्रेणिनिर्जरा के स्थानों का क्रम कहीं-कहीं गुणस्थानों के क्रम के अनुसार नहीं है, इसलिए गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने उन्हें गुणस्थान नहीं माना, अपितु आध्यात्मिक विकास की अवस्था माना है। अर्थात् वे मानते हैं कि सूत्र में जिस अवस्था का जिस क्रम से उल्लेख है, वही अवस्था उसी क्रम से आत्मा में प्रकट होती है। दूसरे शब्दों में पूर्वावस्था से उत्तर अवस्था का विकास होता है। अपने इस मत को प्रकट करते हुए उक्त विद्वान् लिखते हैं
"तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास का जो क्रम है, उसकी गुणस्थानसिद्धान्त से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ गुणस्थानसिद्धान्त में आठवें गुणस्थान से उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी से आरोहण की विभिन्नता को स्वीकार करते हुए भी यह माना है कि उपशमश्रेणीवाला क्रमशः आठवें, नवें एवं दसवें गुणस्थान से होकर ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है, जब कि क्षपकश्रेणीवाला क्रमशः आठवें, नवें एवं दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें गुणस्थान में जाता है। जबकि उमास्वाति यह मानते प्रतीत होते हैं कि चाहे दर्शनमोह के उपशम और क्षय का प्रश्न हो या चारित्रमोह के उपशम या क्षय का प्रश्न हो, पहले उपशम होता है और फिर क्षय होता है। दर्शनमोह के समान चारित्रमोह का भी क्रमशः उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय होता है। उन्होंने उपशम और क्षय को मानते हुए उनकी अलग-अलग श्रेणी का विचार नहीं किया है। उमास्वाति की कर्मविशुद्धि की दस अवस्थाओं में प्रथम पाँच का सम्बन्ध दर्शनमोह के उपशम और क्षपण से है तथा अन्तिम पाँच का सम्बन्ध चारित्रमोह के उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय से है। प्रथम भूमिका में सम्यग्दृष्टि का क्रमशः श्रावक और विरत इन दो भूमिकाओं के रूप में चारित्र का विकास तो होता है, किन्तु उसका सम्यग्दर्शन औपशमिक होता है, अतः वह उपशान्तदर्शनमोह होता है। ऐसा साधक चौथी अवस्था में अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षपण (वियोजन) करता है, अतः वह क्षपक होता है। इस पाँचवीं स्थिति के अन्त में दर्शनमोह का क्षय हो जाता है, अतः वह क्षीणदर्शनमोह होता है। छठी अवस्था में चारित्रमोह का उपशम होता है, अतः वह उपशमक-(चरित्रमोह) कहा जाता है। सातवीं अवस्था में चारित्रमोह उपशान्त होता है। आठवीं में उस उपशान्त-चरित्रमोह का क्षपण किया जाता है, अतः वह क्षपक होता है। नवी अवस्था में चारित्रमोह क्षीण हो जाता है, अतः उसे क्षीणमोह कहा जाता है और दसवीं अवस्था में 'जिन' अवस्था प्राप्त होती है।" (गुण. सिद्धा. एक विश्ले./ पृ.१०-११)।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org