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________________ ३८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०५ गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में गुणस्थानों का क्रम क्रमशः असंख्येयगुणनिर्जरा करनेवालों की अपेक्षा रखा गया है । सर्वत्र नियतक्रम से ही गुणस्थानों का उल्लेख किया जाय, प्रयोजनवश अनियतक्रम से उल्लेख की आवश्यकता हो, तो भी ऐसा न किया जाय, ऐसा तो जिनेन्द्र का उपदेश नहीं है । तथा जब नियतक्रम से गुणस्थानों का उल्लेख हो, तभी वे गुणस्थान कहलायेंगे, अनियतक्रम से उल्लेख करने पर गुणस्थान नहीं कहलायेंगे, ऐसा भी आगमवचन नहीं है। इसी प्रकार सर्वत्र चौदह गुणस्थानों का उल्लेख होने पर ही वे गुणस्थान कहला सकते हैं, प्रयोजनानुसार एक या दो का उल्लेख करने से वे गुणस्थान की परिभाषा से च्युत हो जायेंगे और 'आध्यात्मिक विकास की अवस्था' कहलाने लगेंगे, ऐसा भी आगम में नहीं कहा गया है। ये सारे नियम गुणस्थान विकासवादी विद्वान् ने स्वयं कल्पित किये हैं, ताकि 'तत्त्वार्थ' के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में गुणस्थानों के उल्लेख का अभाव सिद्ध किया जा सके । किन्तु गुणस्थानों का अनियतक्रम से युक्तिसंगत उल्लेख करनेवाला 'तत्त्वार्थ' का गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र इन कल्पित नियमों को निरस्त कर देता है और सिद्ध करता है कि उसमें गुणस्थानों का स्पष्टतः उल्लेख है तथा वह सम्पूर्ण गुणस्थानसिद्धान्त का द्योतन करता है । गुणस्थानविकासवादी विद्वान् का कथन है कि गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में " मिथ्यादृष्टि, सास्वादन (सासादन), सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अयोगिकेवली की कोई चर्चा नहीं है। उपशम और क्षपक श्रेणी की अलग-अलग कोई चर्चा भी यहाँ नहीं है।" (गुण. सिद्धा. एक विश्ले / पृ. १०)। यह तो गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र के प्रतिपाद्य विषय से ही स्पष्ट है कि उसमें मिथ्यादृष्टि, सासादन और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों का उल्लेख नहीं हो सकता था, क्योंकि इन गुणस्थानों में गुणश्रेणिनिर्जरा तो क्या, सामान्य अविपाक निर्जरा भी नहीं होती। अयोगिकेवली की चर्चा पृथक् से करने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सयोगिकेवली और अयोगिकेवली दोनों गुणस्थानों में क्षीणमोह की अपेक्षा समान असंख्येयगुणनिर्जरा होती है, अतः 'जिन' शब्द से दोनों का उल्लेख किया गया है। तथा सूत्र में उपशमक और उपशान्तमोह इन दो शब्दों से उपशमकश्रेणि का और क्षपक तथा क्षीणमोह इन दो शब्दों से क्षपक श्रेणि का स्पष्टतः संकेत किया गया है। गुणश्रेणिनिर्जरा के प्रसंग में 'उपशमक' शब्द से उपशमक श्रेणी के आद्य तीन गुणस्थानों का तथा 'क्षपक' शब्द से क्षपकश्रेणी के शुरू के तीन गुणस्थानों का सामान्यग्राही नैगमनय से षट्खण्डागम में भी निर्देश किया गया है, इस तथ्य को सूचित करनेवाले धवलाकार वीरसेनस्वामी के वचन पूर्व में उद्धृत किये गये हैं। (देखिए, शीर्षक २.१.३) । इस प्रकार गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में गुणस्थानों के उल्लेख का अभाव सिद्ध करने के लिए जितने भी स्वकल्पित हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सब निरस्त हो जाते हैं और सिद्ध होता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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