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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३८३ उक्त विद्वान् को गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच में क्षपक का क्रम रखा जाना भी अयुक्तिसंगत प्रतीत हुआ है। वे लिखते हैं-"क्षपक को सूक्ष्मसाम्पराय से भी योजित (समीकृत) किया जा सकता है, किन्तु उमास्वाति ने उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच जो क्षपक की स्थिति रखी है, उसका युक्तिसंगत समीकरण कर पाना कठिन है, --- गुणस्थानसिद्धान्त में ऐसी बीच की कोई अवस्था नहीं है। सम्भवतः उमास्वाति दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों का प्रथम उपशम और फिर क्षय मानते होंगे।" (गुण. सिद्धा. एक विश्ले. / पृ.१०)।
तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच क्षपक की स्थिति क्यों रखी है, यह तो सूत्र से ही स्पष्ट है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने सूत्र में क्रमशः असंख्येयगुणनिर्जरा करनेवालों का वर्णन किया है। उपशान्तमोह मुनि की अपेक्षा क्षपक (क्षपक श्रेणी के तीन गुणस्थानों के मुनि) असंख्येयगुणनिर्जरा करते हैं और क्षपक से असंख्येयगुणनिर्जरा क्षीणमोह मुनि करता है, अतः उपर्युक्त क्रम युक्तिसंगत है।
यह सत्य है कि चतुर्दश गुणस्थान-समूह में उपशमकश्रेणी के उपशान्तमोह गुणस्थान के बाद क्षपकश्रेणी के अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों का क्रम नहीं है। सातवें गुणस्थान के आगे गुणस्थानों की उपशमक और क्षपक, ये दो अलग-अलग श्रेणियाँ आरम्भ हो जाती हैं, जो अलग-अलग समानान्तर क्रम से आगे बढ़ती हैं। इनमें उपशमकश्रेणी ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान पर समाप्त हो जाती है, किन्तु क्षपकश्रेणी अबाधगति से बढ़ती हुई चौदहवें गुणस्थान पर खत्म होती है। उपशमकश्रेणी में चारित्रमोह की विशिष्ट प्रकृतियों का केवल अन्तर्मुहूर्त के लिए उदय रुकता है, वे सत्ता से नहीं हटतीं। किन्तु क्षपकश्रेणी में वे सत्ता से क्रमशः अलग होती जाती हैं, फलस्वरूप क्षपकश्रेणी के तीन गुणस्थानों में उपशमश्रेणी के चारों गुणस्थानों की अपेक्षा अधिक विशुद्ध परिणाम होते हैं, जिनसे उनमें उपशान्तमोह गुणस्थान की अपेक्षा असंख्येयगुणनिर्जरा होती है। यही प्रदर्शित करने के लिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उपशमकश्रेणी के उपशान्तमोह गुणस्थान के पश्चात् क्षपकश्रेणी के आद्य तीन गुणस्थानों का क्रम रखा है। गुणस्थानविकासवादी विद्वान् इस गुणस्थानसिद्धान्त से अनभिज्ञ थे, इसीलिए उनकी समझ में यह नहीं आया कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपशान्तमोह के अनन्तर क्षपक का स्थान क्यों रखा है? और तत्त्वार्थसूत्रकार को दोषी ठहराते हुए वे कह पड़े-"उमास्वाति ने उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच जो क्षपक की स्थिति रखी है, उसका युक्तिसंगत समीकरण कर पाना कठिन है।" यदि उक्त विद्वान् उपर्युक्त गुणस्थानसिद्धान्त से अभिज्ञ होते, तो उन्हें यह कठिनाई महसूस नहीं होती।
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