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________________ ३८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ __ दूसरी बात यह है कि अनन्तानुबन्धी का वियोजन केवल चौथे गुणस्थान में नहीं, बल्कि चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें में से किसी में भी हो सकता है। और सातवें गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के वियोजन से ही द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इसकी पुष्टि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती-कृत लब्धिसार के निम्नलिखित वचनों से होती है उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता। अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तोऽपमत्तो य॥ २०५॥ तत्तो तियरणविहिणा दंसणमोहं समं खु उवसमदि। सम्मत्तुप्पत्तिं वा अण्णं च गुणसेढिकरणविही॥ २०६॥ अनुवाद-"उपशमचारित्र के सम्मुख हुआ वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सर्वप्रथम पूर्वोक्त विधान से अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक अध:प्रवृत्त-अप्रमत्त अर्थात् स्वस्थान-अप्रमत्त होता है।" (२०५)। "अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तीन करण-विधि के द्वारा तीनों दर्शनमोहनीय-कर्मप्रकृतियों को एक साथ उपशमाता है। गुणश्रेणी, करण व अन्य अर्थात् स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक आदि विधि प्रथमोपशम-सम्यक्त्वोत्पत्ति के सदृश करता है।" (२०६)। ___ इस प्रमाण से सिद्ध है कि उपशमचारित्र को प्राप्त करने के लिए अर्थात् उपशमकश्रेणि पर आरूढ़ होने के लिए क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि जीव अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के वियोजनपूर्वक दर्शनमोह का उपशम करता है। और अनन्तानुबन्धी के वियोजन या विसंयोजना का अर्थ क्षय है ही नहीं, यह पूर्व में जयधवला टीका से प्रमाणित किया जा चुका है, अतः 'विरत' के पश्चात् अनन्तवियोजक अवस्था के उल्लेख से उपशमश्रेणी की दृष्टि से कोई बाधा नहीं आती। यह बाधा 'अनन्तवियोजक' के वास्तविक अर्थ की अनभिज्ञता के कारण गुणस्थानविकासवादी विद्वान् के मस्तिष्क में आयी है। इसीलिए उन्हें यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि सम्यग्दृष्टि, श्रावक एवं विरत के पश्चात् अनन्तवियोजक का क्रम आचार्य ने किस दृष्टि से रखा है? यदि वे 'अनन्तवियोजक' के उपर्युक्त अर्थ से, जो तत्त्वार्थसूत्रकार को अभीष्ट था, तथा द्वितीयोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति में अनन्तवियोजन की अनिवार्यता के तथ्य से परिचित होते, तो उन्हें यह समझने में देर न लगती कि आचार्य ने अनन्तवियोजक का क्रम वहाँ किस दृष्टि से रखा है। उन्हें उसके क्रम का औचित्य तुरन्त बुद्धिगम्य हो जाता और उसे गुणस्थान के चौखटे में संयोजित करना कठिन नहीं होता। तत्त्वार्थसूत्रकार की सूत्ररचना में गुणस्थानविकासवादी विद्वान् को विसंगति दिखायी देना, इस बात का सबूत है कि मान्य विद्वान् की धारणाएँ एवं चिन्तनपद्धति तत्त्वार्थसूत्रकार के विरुद्ध हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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