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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३८१ निर्जरा करता है। अतः 'विरत' शब्द प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत दोनों गुणस्थानों में पूर्वगुणस्थानापेक्षया असंख्येयगुणनिर्जरा होने का सूचक है। किसी अनादिमिथ्यादृष्टि के सीधे अप्रमत्तगुणस्थान में पहुँचने का कथन धवलाटीका में इस प्रकार किया गया है-“एक्केण अणादियमिच्छादिट्ठिणा तिण्णि करणाणि करिय उवसमसम्मत्तं संजमं च अक्क-मेण पडिवण्णपढमसमए अणंतसंसारं छिंदिय अद्धपोग्गल-परियट्टमेत्तं कदेण अप्पमत्तद्धा अंतोमुहत्तमेत्ता अणुपालिदा। तदो पमत्तो जादो। ---" (धवला / ष.ख./ पु.५ / १,६,१५ / पृ.१९)। २.२. गुणस्थानसिद्धान्त से अनभिज्ञतावश स्वकल्पित असंगत व्याख्याएँ एवं निष्कर्ष उपर्युक्त प्ररूपण से स्पष्ट हो जाता है कि 'तत्त्वार्थ' के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में गुणस्थानों में ही उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा बतलायी गयी है, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक और क्षपक, ये स्वतन्त्र गुणस्थान नहीं हैं, अपितु गुणस्थानों के विशिष्टरूप हैं। किन्तु गुणस्थानसिद्धान्त से अनभिज्ञ होने के कारण गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने स्वकल्पना से असंगत व्याख्याएँ की हैं, जिससे उन्हें गुणश्रेणिनिर्जरास्थानों में गुणस्थानों का अस्तित्व दिखाई देना असंभव हो गया। वे लिखते हैं __ "यद्यपि अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह तथा क्षपक आदि अवस्थाओं को उनके मूल भावों की दृष्टि से तो आध्यात्मिक विकास की इस अवधारणा से जोड़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें सीधा-साधा गुणस्थान के चौखटे में संयोजित करना कठिन है, क्योंकि गुणस्थानसिद्धान्त में तो चौथे गुणस्थान में ही अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षय या क्षयोपशम हो जाता है। पुनः उपशमश्रेणी से विकास करनेवाला तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धीकषाय का उपशम ही करता है, क्षय नहीं। अतः अनन्तवियोजक का अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मानने से उपशमश्रेणी की दृष्टि से बाधा आती है। सम्यग्दृष्टि, श्रावक एवं विरत के पश्चात् अनन्तवियोजक का क्रम आचार्य ने किस दृष्टि से रखा, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।" ( गुण. सिद्धा. एक विश्ले. / पृ.९-१०)। ये सभी धारणाएँ गुणस्थानसिद्धान्त, कर्मसिद्धान्त और तत्त्वार्थसूत्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं। पहली बात तो यह है कि उपशमकश्रेणी पर द्वितीयोपशम-सम्यग्दृष्टि ही नहीं, क्षायिकसम्यग्दृष्टि भी आरूढ़ होता है और द्वितीयोपशम-सम्यग्दर्शन तथा क्षायिकसम्यग्दर्शन में अनन्तानुबन्धिकषायों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम नहीं होता, विसंयोजना होती है, अर्थात् विशिष्ट सम्यक्त्वपरिणाम से उन्हें अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषायों और नौ नोकषायों के रूप में परिणमित किया जाता है। केवल दर्शनमोह का उपशम और क्षय होता है। विसंयोजित ( अप्रत्याख्यानावरणादि के रूप में परिणमित) अनन्तानुबन्धी का क्षय क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ मुनि ही करता है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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