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________________ ३८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०५ होता है, वह परिणामों की विशुद्धि से बढ़ता हुआ और 'क्षपक' संज्ञा धारण करता हुआ उपशान्तकषाय को होनेवाली निर्जरा से असंख्येयगुण - निर्जरा का पात्र होता है। जब वह निःशेष चारित्रमोह के क्षपण में कारणभूत परिणामों के अभिमुख होता है, तब क्षीणकषाय नाम ग्रहण करता हुआ पूर्वोक्त निर्जरा से असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। पश्चात् वही मुनि द्वितीय शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिकर्मसमूह को दग्धकर 'जिन' संज्ञा धारण करता है और पूर्वोक्त निर्जरा से असंख्येयगुण-गुण निर्जरा करता है।" (सर्वार्थसिद्धि / ९ / ४५) । वीरसेनस्वामी का कथन है कि मोहनीय के बन्ध, उदय व सत्त्व का अभाव हो जाने से कर्मनिर्जरा की शक्ति अनन्तगुणी वृद्धिंगत हो जाती है - " मोहणीयस्स बंधुदयसंताभावेण वड्ढिदअणंतगुणकम्मणिज्जरणसत्तीदो ।" (धवला / ष.ख. / पु.१२ / ४,२, ७,१८३ / पृ.८४) । इसी प्रकार घातिया कर्मों के क्षीण हो जाने से कर्मनिर्जरा का परिणाम अनन्तगुणा बढ़ जाता है – “घादिकम्मक्खएण वड्ढिदाणंतगुणकम्मणिज्जरणपरिणामादो" (धवला / ष.ख. / पु. १२ / ४, २, ७, १८४ / पृ.८४) । वीरसेनस्वामी ने 'जिन' के स्वस्थान जिन और योग निरोध में प्रवृत्त जिन, ये दो भेद करके गुणश्रेणिनिर्जरा के ग्यारह स्थान बतलाये हैं- " जिणे त्ति भणिदे सत्थाणजिणाणं जोगिणिरोहे वावदजिणाणं च गहणं । " ( धवला / ष.ख. / पु.१२ / ४, २,७,७-८ गा./पृ.७९) । गोम्मटसार - जीवकाण्ड (गा. ६६) की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका में भी इसी प्रकार ग्यारह स्थान कहे गये हैं- " ततः स्वस्थानकेवलिजिनस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । -इत्येकादशसु स्थानेषु गुणश्रेणिनिर्जरा - द्रव्यस्य प्रतिस्थानमसंख्यातगुणितत्वमुक्तम् ।" उपशमकश्रेणी और क्षपकश्रेणी के आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानों में भी उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित निर्जरा होती है, किन्तु नैगमनय से उनमें एकत्व ग्रहण कर एक-एक स्थान ही प्ररूपित किया गया है, जैसा कि वीरसेनस्वामी ने कहा हैइगमणए अवलंबिज्जमाणे तिण्णमुवसामगाणं तिण्णं खवगाणं च एगत्तप्पणाए एक्कारसगुणसेडिणिज्जरुववत्तीदो।" (धवला / ष. ख. / पु.१२ / ४,२,७,१८० / पृ.८३)। 44 विरत अर्थात् संयत के भी दे भेद हैं : प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । कोई अनादि-मिथ्यादृष्टि जब अनन्तानुबंधी एवं दर्शनमोह का उपशम तथा अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण कषायों का क्षयोपशम एक साथ करता हुआ सीधे अप्रमत्तसंयत (सप्तम) गुणस्थान में पहुँचता है, तब इन कषायों के क्षयोपशम - निमित्तक विशुद्धपरिणामप्रकर्ष से वह प्रमत्तसंयत के तुल्य ही श्रावक से असंख्येयगुणनिर्जरा करता है, बल्कि प्रमाद के अभाव में निमित्तभूत विशुद्धपरिणाम के अतिशय से प्रमत्तसंयत से भी अधिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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