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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३७९ २.१.३. गुणश्रेणिनिर्जरा का काल-सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी लिखते हैं-"असंख्यात-गुणितक्रम-श्रेणिरूप से कर्मों की निर्जरा होना गुणश्रेणिनिर्जरा है। यह गुणश्रेणिनिर्जरा सर्वदा नहीं होती, किन्तु उपशमना और क्षपणा के कारणभूत परिणामों के द्वारा ही गुणश्रेणिरचना होकर यह निर्जरा होती है।" ( स. सि./विशेषार्थ । ९/४५)। वीरसेनस्वामी ने भी पूर्वोद्धृत कथन में कहा है कि अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना में कारणभूत विशिष्ट-सम्यक्त्व-परिणामों से ही उक्त कषायों की विसंयोजना होती है। इसका तात्पर्य यह है कि विसंयोजना में कारणभूत उन्हीं परिणामों से अर्थात् विसंयोजनाकाल में ही असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में से जिस गुणस्थानवाला जीव विसंयोजना करता है, उसके कर्मों की छठे गुणस्थानवर्ती संयत की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। इसका स्पष्टीकरण आचार्य पूज्यपाद-स्वामी ने इस प्रकार किया है "काललब्धि आदि साधनों को प्राप्त करनेवाला भव्य, संज्ञी, पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय जीव विशुद्ध परिणामों की वृद्धि करता हुआ क्रमशः अपूर्वकरण आदि सोपानपंक्ति पर आरूढ़ होते हुए बहुत से कर्मों की निर्जरा करता है। वही जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्त मिलने पर प्रथमोपशम-सम्यग्दृष्टि होता हुआ असंख्येयगुणकर्मनिर्जरा करता है। जब वह जीव अप्रत्याख्यानावरण-कषाय के क्षयोपशम में कारणभूत परिणामों की विशुद्धि से युक्त होता है, तब 'श्रावक' संज्ञा प्राप्त करता हुआ अपनी पूर्वोक्त अवस्था से असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। जब वह श्रावक प्रत्याख्यानावरणकषाय के क्षयोपशम में निमित्तभूत परिणामों की विशुद्धि से युक्त होता है, तब वह 'विरत' संज्ञा धारण करता हुआ पूर्वकथित अवस्था से असंख्येयगुणनिर्जरा करता है। जब चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें गुणस्थानवाला जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना में तत्पर होता है, तब वह विशुद्ध परिणामों के प्रकर्ष से 'विरत' की अपेक्षा असंख्येयगुणनिर्जरावाला होता है। जब चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें गुणस्थान का अनन्तानुबन्धिविसंयोजक दर्शनमोह के क्षय में संलग्न होता है, तब परिणामविशुद्धि के अतिशय से 'दर्शनमोहक्षपक' नाम प्राप्त करता हुआ अपनी अनन्तानुबन्धि-विसंयोजक पूर्वावस्था से असंख्येयगुण-निर्जरा का स्वामी होता है। इस प्रकार वह क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर श्रेणि पर आरोहण के सम्मुख होता हुआ तथा चारित्रमोह के उपशम का प्रयत्न करता हुआ विशुद्धि के प्रकर्षवश उपशमक संज्ञा का अनुभव करता है और पूर्वोक्त निर्जरा से असंख्येयगुण-निर्जरा करता है। वही जीव समस्त चारित्रमोह के उपशमक निमित्त मिलने पर उपशान्तकषाय संज्ञा को प्राप्त होता हुआ, पूर्वकथित निर्जरा से असंख्येयगुणनिर्जरा करता है। जो सप्तमगुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि, चारित्रमोह के क्षपण के सम्मुख होता है, अर्थात् चारित्रमोह का क्षय करने के लिए क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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