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________________ ३७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०५ हैं, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। यदि इनमें भेद न होता, तो तत्त्वार्थसूत्रकार "वियोजक' शब्द का प्रयोग न कर 'क्षपक' या 'उपशमक' शब्द ही प्रयुक्त करते, जैसा कि 'दर्शनमोहक्षपक' और 'उपशमक' (चारित्र-मोहोपशमक) में किया है। 'दर्शनमोहक्षपक' में 'क्षपक' और 'अनन्तवियोजक' में 'वियोजक' शब्द का प्रयोग करने से स्पष्ट है कि 'वियोजक' का अर्थ 'क्षपक' से भिन्न है और वह वही है, जो ऊपर बतलाया गया है। वह कसायपाहुड की टीका जयधवला आदि से प्रमाणित है। २.१.२. अनन्तवियोजक-असंयतसम्यग्दृष्टि संयत से अधिक निर्जरायोग्य कैसे?- उपर्युक्त गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में अनन्तवियोजक असंयतसम्यग्दृष्टि और श्रावक को अनन्त-अवियोजक विरत (प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत मुनि) से असंख्येयगुणनिर्जरा के योग्य बतलाया गया है। इसकी युक्तियुक्तता के विषय में शङ्का उठना स्वाभाविक है, अतः वीरसेनस्वामी ने इसका समाधान निम्नलिखित शब्दों में किया है "संजमपरिणामेहितो अणंताणुबंधि-विसंजोएंतस्स असंजदसम्मादिट्ठिस्स परिणामो अणंतगुणहीणो, कधं तत्तो असंखेज्जगुणपदेसणिज्जरा जायदे? ण एस दोसो, संजम-परिणामेहितो अणंताणुबंधीणं विसंजोजणाए कारणभूदाणं सम्मत्त-परिणामाणमणंतगुणत्तुवलंभादो। जदि सम्मत्तपरिणामेहि अणंताणुबंधीणं विसंजोजणा कीरदे, तो सव्वसम्माइट्ठीसु तब्भावो पसज्जदि त्ति वुत्ते ण, विसिटेहि चेव सम्मत्त-परिणामेहि तव्विसंजोयणब्भुवगमादो।" (धवला / ष.ख./ पु.१२ / ४, २,७, १७८ / पृ.८२)। अनुवाद शंका-"संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि का परिणाम अनन्तगुणाहीन होता है, ऐसी अवस्था में उससे असंख्यातगुणी प्रदेशनिर्जरा कैसे हो सकती है?" समाधान-"यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना में कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अणंतगुणे उपलब्ध होते हैं।" शंका-"यदि सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना की जाती है, तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग आता है?" समाधान-"सब सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार की गयी है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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