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________________ अ०१०/प्र०५ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३७७ उदयाभाव को नहीं, अपितु स्वरूप को छोड़कर परप्रकृतिरूप (अप्रत्याख्यानावरणादिरूप) में स्थित रहने को उपशम कहा गया है। इसे उन्होंने जयधवला में विसंयोजना ही कहा है। (देखिये, पा.टि.१५७)। षट्खण्डागम के अनुवादकों ने भी लिखा है"अनन्तानुबन्धी के अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमण होने को ग्रन्थान्तरों में विसंयोजना कहा है और यहाँ पर द्वितीयोपशम का प्रकरण होने से उसे उपशम कहा है। सो यह केवल शब्दभेद है। स्वयं वीरसेन स्वामी को द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी का अभाव (स्वरूप को छोड़कर अप्रत्याख्यानादिरूप से रहना) इष्ट है।" (ष.खं/ पु.१/१.१.२७ विशेषार्थ / पृ.२१५)। तात्पर्य यह कि लक्षण की दृष्टि से विसंयोजना और उपशम में भेद है, तथापि व्यवहारनय से उसे उपशम शब्द से अभिहित किया गया है। क्षायिकसम्यक्त्व भी अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना से ही होता है,१५८ किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टि में कभी मिथ्यात्व का उदय नहीं हो सकता, इसलिए विसंयोजित अनन्तानुबन्धी भी कभी संयोजित नहीं हो सकती, अतः उसका क्षय ही माना जाता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशमकश्रेणी पर भी आरूढ़ हो सकता है और क्षपक श्रेणी पर भी।५९ किन्तु द्वितीयोपशम-सम्यग्दृष्टि के लिए केवल उपशमश्रेणी पर ही आरोहण संभव है। . अनन्तानुबन्धीकषाय-चतुष्क की विसंयोजना चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थानों में से किसी में भी हो सकती है, यह वीरसेनस्वामी के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है। गोम्मटसार-कर्मकाण्ड की जीवतत्त्व-प्रदीपिका-वृत्ति में भी ऐसा ही कहा गया है। ( देखिये, पा.टि. १५८)। विसंयोजना क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि ही करता है। श्वेताम्बर आचार्य श्री सिद्धसेनगणी और श्री हरिभद्रसूरि ने वियोजन का अर्थ 'क्षपण'. या 'उपशमन' किया है,१६० इसी के आधार पर डॉ० सागरमल जी ने भी 'अनन्तवियोजक' से 'अनन्तानुबन्धी का क्षय करने वाला' अर्थ ग्रहण किया है।६१ यह आगमविरुद्ध है। उपशमन, क्षपण और विसंयोजना के लक्षण परस्पर अत्यन्त भिन्न १५८. "असंयतादिचतुर्गुणस्थानवर्तिनोऽनिवृत्तिकरणपरिणामकालान्तर्मुहूर्तचरमसमयेऽनन्तानुबन्धि कषायचतुष्कं युगपदेव विसंयोज्य द्वादशकषायनोकषायरूपेण परिणमय्य अन्तर्मुहूर्तकालं विश्रम्य ---मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वप्रकृतीः क्रमेण क्षपयति। ततः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्भ वति।" जीवतत्त्वप्रदीपिका / गोम्मटसार-कर्मकण्ड / गा.३३५-३३६ । १५९. "एवं सः क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा श्रेण्यारोहणाभिमुखश्चारित्रमोहोपशमं प्रति व्याप्रियमाणो ---।" सर्वार्थसिद्धि/९/४५। १६०. "अनन्तः संसारस्तदनुबन्धिनोऽनन्ताः क्रोधादयस्तान् वियोजयति क्षपयत्युपशमयति वा अनन्तवियोजकः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / ९/४७। १६१. गुणस्थानसिद्धान्त : एक विश्लेषण / पृ.१० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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