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३७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ की विशुद्धता में हानि हो जावे, तो अनन्तानुबन्धी-कषाय का स्तिवुकसंक्रमण रुक जाता है और अनन्तानुबन्धी का परमुख उदय की बजाय स्वमुख उदय आने के कारण प्रथमोपशम सम्यक्त्व की आसादना (विराधना) हो जाती है और प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरकर दूसरा सासादनगुणस्थान हो जाता है। मिथ्यात्वप्रकृति का अभी उदय नहीं हुआ, क्योंकि उसका अन्तर व उपशम है। अतः उसको मिथ्यादृष्टि नहीं कहा गया। अनन्तानुबन्धीकषायजनित विपरीताभिनिवेश हो जाने के कारण सम्यक्त्व की विराधना हो जाने से उसकी सासादन-सम्यग्दृष्टि ( सम्यक्त्व की विराधना-सहित) संज्ञा हो जाती है।" ( विशेषार्थ / लब्धिसार / गा. १००)।
जो क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं करता, उसका भी अनन्तानुबन्धीकर्म स्तिवुकसंक्रमण द्वारा अप्रत्याख्यानावरणादि के रूप में संक्रमित होकर उदय में आता है।
द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजनापूर्वक होता है, यह लब्धिसार की 'उवसमचरियाहिमुहो' आदि गाथाओं (२०५, २०६) में कहा गया है। (देखिये, शीर्षक २.२)। श्री वीरसेन स्वामी का भी यही कथन है। उन्होंने उपशमक (उपशमकश्रेणि पर आरूढ़ होनेवाले जीव) की उपशमनविधि का वर्णन करते हुए लिखा है
"तत्थ ताव उवसामणविहिं वत्तइस्सामो। अणंताणुबंधिकोध-माण-माया-लोभसम्मत्तसम्मामिच्छत्त-मिच्छत्तमिदि एदाओ सत्तपयडीओ असंजदसम्माइट्ठि-प्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव एदेसु जो वा सो वा उवसामेदि। सरूवं छंडिय अण्णपयडिसरूवेणच्छणमणंताणु-बंधीणमुवसमो। दंसणतियस्स उदयाभावो उवसमो, तेसिमुवसंताणं पि ओकड्डुक्कड्डण-पर-पयडि-संकमाणमत्थित्तादो।---"(धवला / ष. खं. / पु.१/१, १, २७ / पृ.२११)।
अनुवाद-"( उपशमनविधि और क्षपणविधि में से ) पहले उपशमन-विधि का कथन करते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व तथा मिथ्यात्व, इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थानों में रहनेवाला कोई भी जीव उपशम करनेवाला होता है। अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृतिरूप से रहना अनन्तानुबन्धी का उपशम है। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उदय में नहीं आना ही उपशम है, क्योंकि उपशान्त हुई उन तीन प्रकृतियों का उत्कर्षण, अपकर्षण और परप्रकृतिरूप से संक्रमण पाया जाता है।"
यहाँ उपशम का प्रकरण होने से वीरसेनस्वामी ने विसंयोजना को 'उपशम' शब्द से अभिहित किया है, किन्तु लक्षण विसंयोजना का ही है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी के
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