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________________ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३७५ "अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहत्रयस्य च उदयाभाव - लक्षणाऽप्रशस्तोपशमेन प्रसन्नमलपङ्कतोयसमानं यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्वं नाम । " (जी.त. प्र./ गो.जी./गा. ६५०) । अ०१० / प्र०५ अनुवाद- 'अनन्तानुबन्धिचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक के उदयाभावरूप अप्रशस्त उपशम से मलपंक के नीचे बैठ जाने से निर्मल हुए जल की तरह जो पदार्थश्रद्धान होता है, उसका नाम उपशमसम्यक्त्व है। " किन्तु कर्मसिद्धान्त के विशेषज्ञ स्व० पं० रतनचन्द जी जैन मुख्तार का कथन है कि उपशमसम्यक्त्व के काल में अनन्तानुबन्धी कषाय परमुख से उदय में आती है । एक प्रश्न का समाधान करते हुए वे लिखते हैं 44 44 'उपशमसम्यक्त्व के काल में जो निषेक उदय होने योग्य होते हैं, उनमें दर्शनमोहनीय कर्म का द्रव्य नहीं होता, क्योंकि अन्तरकरण के द्वारा दर्शनमोहनीय का अन्तर कर दिया जाता है। इस अन्तर के पश्चात् द्वितीय स्थिति में स्थित दर्शनमोहनीय के द्रव्य का उपशम हो जाने से वह द्रव्य उदीरणा होकर उपशमसम्यक्त्व के काल में उदय में नहीं आता है, किन्तु अनन्तानुबन्धी कर्म का अन्तर नहीं होता। उपशम-सम्यक्त्व के काल में अनन्तानुबन्धी कषाय का द्रव्य प्रतिसमय स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा परप्रकृतिरूप संक्रमण होकर परमुखरूप उदय में आता है। वर्तमान समय से ऊपर के निषेकों में अनन्तानुबन्धी का द्रव्य उपशम रहता है, अर्थात् उदीरणा होकर वर्तमान समय में उदय में नहीं आता। उपशम मोहनीयकर्म का ही होता है, किन्तु स्तिबुकसंक्रमण ज्ञानावरणादि सात कर्मों में होता है, आयु कर्म में स्तिबुकसंक्रमण नहीं होता।--- उदयावली के अन्दर ही स्तिबुकसंक्रमण होता है, उदयावली से बाह्य स्तिबुकसंक्रमण नहीं होता है । उदयरूप निषेक के अनन्तर ऊपर के निषेक में अनुदयरूप प्रकृति के द्रव्य का उदयप्रकृतिरूप संक्रमण हो जाना स्तिबुकसंक्रमण है।" (पं.र. च. जैन मुख्तार : व्यक्तित्व एवं कृतित्व / भा. १ / पृ. ५१७) । लब्धिसार की १००वीं गाथा का विशेषार्थ बतलाते हुए भी पं० रतनचन्द्र जी मुख्तार ने लिखा है - " प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व तीन करण (अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति-करण) होते हैं । अनिवृत्तिकरण काल का बहुभाग व्यतीत हो जाने पर दर्शनमोहनीय का अन्तर होकर उपशम होता है, किन्तु अनन्तानुबन्धी- चतुष्क का न तो अन्तर होता है और न उपशम होता है । हाँ, परिणामों की विशुद्धता के कारण प्रतिसमय स्तिवुकसंक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धी कषाय का अप्रत्याख्यानादिकषायरूप परिणमन होकर परमुख उदय होता रहता है । प्रथमोपशम - सम्यक्त्व के काल में अधिक से अधिक छह आवलिकाल शेष रह जाने पर और कम से कम एक समय काल शेष रह जाने पर यदि परिणामों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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