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________________ ३७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०५ अनन्तानुबन्धी विसंयोजित रूप में अधिक से अधिक कुछ कम १३२ सागर काल तक रह सकती है। उसके बाद पुनः संयोजित हो सकती है अर्थात् अपने अनन्तानुबन्धीरूप में आ सकती है। जैसे कोई मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करता है और वेदकसम्यक्त्व के साथ कुछ कम ६६ सागर तक रहता है। फिर एक अन्तर्मुहूर्त के लिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाता है । पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि होकर कुछ कम ६६ सागर तक सम्यग्दृष्टि बना रहता है। तत्पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और अनन्तानुबन्धी की संयोजना कर लेता है। इस प्रकार जीव का कुछ कम दो ६६ सागर अर्थात् कुछ कम १३२ सागर तक अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना से युक्त रहना सम्भव है । (षट्खण्डागम / पु.५ / पृ.६ तथा कसायपाहुड/ भाग ५/पृ.२६९/पं. र. च. जै. मुख्तार : व्यक्तित्व एवं कृतित्व / भा. १ / पृ.५०१) । विसंयोजना की उपशम से यह भिन्नता है कि विसंयोजना में कर्म अन्यकर्मरूप में परिणमित होकर स्थित रहता है, किन्तु उपशम में ऐसा नहीं होता । उपशम में केवल वह उदय में नहीं आता । दूसरे, उपशम- अवस्था अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहती है, जबकि विसंयोजना कुछ कम १३२ सागरोपमकाल तक रह सकती है। विसंयोजना केवल अनन्तानुबन्धी कषाय की होती है, किन्तु उपशम शेष सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का होता है। उपशम दो प्रकार का होता है : प्रशस्त और अप्रशस्त । उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृति-संक्रमण, स्थिति - काण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात के बिना ही कर्मों के सत्ता में रहने को ( प्रशस्त) उपशम कहते हैं-" उवसमो णाम किं ? उदयउदीरण-ओकड्डडुक्कड्डण - परपयडिसंकम-ट्ठिदि - अणुभाग-खंडयघादेहि विणा अच्छणमुवसमो।” (धवला / ष. ख. / पु. १ / १, १, २७ / पृ. २१३) । यह उपशम चारित्रमोह का होता है । (जै. सि. को. १ / ४३७) । किन्तु जिस उपशम में कर्म का उत्कर्षण, अपकर्षण तथा अन्यप्रकृति में संक्रमण शक्य हो, केवल उदयावली में प्रवेश संभव न हो, वह अप्रशस्त उपशम कहलाता है - " अप्पसत्थुवसामणाए जमुवसंतं पदेसग्गं तमोकड्डिदं पि सक्कं, उक्कड्डिदु पि सक्कं पयडीए संकामिदं पि सक्कं, उदयावलियं पवेसिदुं ण उ सक्कं ।" (धवला / ष.ख. / पु.१५ / पृ.२७६) । प्रथमोपशम- सम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी कषाय का अप्रशस्त उपशम होता है, अर्थात् उसका उत्कर्षणादि तो संभव होता है, किन्तु उदयावली में प्रवेश संभव न होने से उदय नहीं होता। श्री केशववर्णी प्रथमोपशम- सम्यक्त्व का लक्षण बतलाते हुए लिखते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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