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अ०१० / प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३७३
इस चित्र से स्पष्ट हो जाता है कि अनन्तवियोजक और दर्शनमोहक्षपक स्वतन्त्र गुणस्थान नहीं हैं, अपितु चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थानों के ही विशिष्टरूप हैं । इसी प्रकार उपशमक और क्षपक भी पृथक् गुणस्थान नहीं हैं, बल्कि आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानों की ही विशिष्ट अवस्थाएँ हैं ।
२.१.१. अनन्तवियोजक का अर्थ- सूत्र में अनन्तवियोजक का उल्लेख हुआ है । अनन्तवियोजक का अर्थ है अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करनेवाला । विसंयोजना का अर्थ है अनन्तानुबन्धी के कर्मस्कन्धों का अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के रूप में परिणमित होना । | १५७ विसंयोजना और क्षपणा में लक्षणभेद बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं
"कम्मंतरसरूवेण संकमिय अवद्वाणं विसंयोजणा, णोकम्मसरूवेण परिणामो खवणाति अस्थि दोन्हं पि लक्खणभेदो । अणंताणुबंधीणं व मिच्छत्तादीणं विसंजोयणपयडिभावो आइरिएहि किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, विसंजोयणभावं गंतूण पुणो णियमेण खवणभावमुवणमंति त्ति तत्थ तदणुब्भुवगमादो। ण च अणंताणुबंधीसु विसंजोइदासु अंतोमुहुत्तकालब्धंतरे तासिमकम्प - भावगमणणियमो अत्थि जेण तासिं विसंजोयणाए खवणसण्णा होज्ज । तदो अणंताणुबंधीणं व सेसविसंजोइदपयडीणं ण पुणरुप्पत्ती अत्थि त्ति सिद्धं ।" (ज.ध. /क.पा./ भा. ५/पृ.२०७-२०८)।
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अनुवाद - " किसी कर्म का दूसरे कर्म के रूप में संक्रमित होकर ठहरे रहना विसंयोजना है और कर्म का नोकर्मरूप से अर्थात् कर्माभावरूप से परिणमन होना क्षपणा है । इस प्रकार दोनों में लक्षणभेद है। यदि प्रश्न किया जाय कि अनन्तानुबन्धी की तरह मिथ्यात्वादि प्रकृतियों को भी आचार्यों ने विसंयोजनाप्रकृति क्यों नहीं माना ? ( क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि में दर्शनमोह की मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियाँ उदयप्राप्त सम्यक्त्व-प्रकृति के रूप में संक्रमित होकर उदय में आती हैं), तो ऐसा प्रश्न करना ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वादि प्रकृतियाँ विसंयोजनभाव को प्राप्त होकर नियम से क्षय को प्राप्त होती हैं, इसलिए उनमें विसंयोजनभाव नहीं माना गया है। किन्तु अनन्तानुबन्धी कषायों का विसंयोजन होने पर अन्तर्मुहूर्त के भीतर उनके अकर्मभाव को प्राप्त होने का नियम नहीं है, जिससे उनकी विसंयोजना को क्षपणा संज्ञा प्राप्त हो सके । अतः अनन्तानुबन्धी की तरह शेष विसंयोजित प्रकृतियों की पुनः उत्पत्ति नहीं होती, यह सिद्ध हुआ । "
१५७.‘“ अणंताणुबंधिचउक्कक्खंधाणं परसरूवेण परिणमणं विसंयोजणा ।" जयधवला / कसायपाहुड / भा.२ / २,२२/ पृ.२१९। अर्थात् अनन्तानुबन्धी- चतुष्क के कर्मस्कन्धों का परपकृतिरूप (अप्रत्याख्यानावरणादि के रूप) में परिणमित होना विसंयोजना है।
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