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३७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०५
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आरूढ़ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय इन आठवें, नौवें एवं दसवें (तीन) गुणस्थानों की सामान्य संज्ञा है। इसी प्रकार 'क्षपक' क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ इन्हीं तीन गुणस्थानों का सामूहिक नाम है। 'जिन' शब्द सयोगिजिन और अयोगिजिन, इन तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों का सूचक है। इस प्रकार उपर्युक्त सूत्र में आदि के तीन ( मिथ्यात्व, सासादन और सम्यग्मिथ्यात्व ) गुणस्थानों को छोड़कर शेष ग्यारह गुणस्थानों का वर्णन है । गुणश्रेणिनिर्जरा का प्रकरण होने से आदि के तीन गुणस्थानों के निर्देश का यहाँ प्रयोजन नहीं था, क्योंकि उनमें अविपाक निर्जरा नहीं
होती ।
उपर्युक्त गुणश्रेणिनिर्जरा - स्थानों की गुणस्थानात्मकता निम्नलिखित चित्र से स्पष्ट हो जाती है
०१. मिथ्यादृष्टि
०२. सासादनसम्यग्दृष्टि
०३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि
०४. असंयतसम्यग्दृष्टि
०५. संयतासंयत (श्रावक)
०६. प्रमत्तसंयत (प्रमत्तविरत ) ०७. अप्रमत्तसंयत (अप्रमत्तविरत )०८. अपूर्वकरण
०९. अनिवृत्तिबादरसाम्पराय
१०. सूक्ष्मसाम्पराय
११. उपशान्तमोह
१२. क्षीणमोह
१३. सयोगिजिन
१४. अयोगिजिन
ख- "--.
गुणस्थानसमूह
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सामान्य / अनन्तवियोजक / दर्शनमोहक्षपक सामान्य / अनन्तवियोजक / दर्शनमोहक्षपक सामान्य / अनन्तवियोजक / दर्शनमोहक्षपक सामान्य / अनन्तवियोजक / दर्शनमोहक्षपक
. १५६
उपशमक / क्षपक . १५६ उपशमक / क्षपक उपशमक / क्षपक १५६
-अपूर्वकरणोपशमक-क्षपकानिवृत्तिबादरसाम्परायोपशमक - क्षपक- सूक्ष्मसाम्परायोपशमक-क्षपकोपशान्त क्षीणकषाय-सयोगकेवल्ययोगकेवलिलक्षणानि गुणस्थानानि । " आत्मख्याति / समयसार / गाथा ५०-५५ ।
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