________________
अ०१० / प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३७१ ग्रन्थ लगभग छठी शती उत्तरार्द्ध के या उससे भी परवर्ती ही सिद्ध होते हैं । निश्चय ही प्रस्तुत ‘जीवसमास' और 'षट्खण्डागम' उनसे कुछ पूर्ववर्ती हैं। '
,,१५३
२
गुणस्थानविकासवाद का निरसन
तत्त्वार्थसूत्र में सम्पूर्ण गुणस्थान - सिद्धान्त का प्रकाशन
गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की यह मान्यता सर्वथा कपोलकल्पित है । तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त का पूर्ण अभाव बतलाना सत्य का महान् अपलाप है । सूत्रकार ने किसी स्वतन्त्र सूत्र में चौदह गुणस्थानों का नामोल्लेख नहीं किया है, किन्तु भिन्नभिन्न सूत्रों में भिन्न-भिन्न गुणस्थानों का नामोल्लेख करते हुए, उनमें होने वाले परीषहों, ध्यान-प्रकारों, कर्मबन्ध और गुणश्रेणिनिर्जरा का आगमसम्मत विवेचन किया है। इस प्रकार सभी चौदह गुणस्थानों से सम्बन्धित विषयविशेष का विवेचन तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध है, जिससे सम्पूर्ण गुणस्थानसिद्धान्त प्रकाशित होता है । उदाहरण प्रस्तुत हैं२.१. गुणश्रेणिनिर्जरास्थान गुणस्थान ही हैं
तत्त्वार्थ के निम्नलिखित सूत्र में गुणश्रेणिनिर्जरा के दस स्थानों का वर्णन है— "सम्यग्दृष्टि - श्रावक - विरतानन्तवियोजकदर्शनमोह-क्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक- क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।" (त.सू./९/४५)।
अनुवाद – “सम्यग्दृष्टि (सम्यक्त्वोन्मुख अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि ), १५४ श्रावक (देशव्रती), विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह' और जिन, इन दस स्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । " १५५
इनमें सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और जिन ये स्पष्टतः गुणस्थानों के नाम हैं। ‘विरत' शब्द प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत दोनों गुणस्थानों का ज्ञापक है। अनन्तवियोजक (अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करनेवाले ) एवं दर्शनमोहक्षपक (दर्शनमोह का क्षय करनेवाले ) चतुर्थ से सप्तम गुणस्थानवाले जीव होते हैं । अतः वे इन गुणस्थानों के विशेषण हैं। 'उपशमक' उपशमकश्रेणी १५६ पर १५३. वही / पृ.VI ।
१५४. धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु. १२ / ४,२,७ / गा. ७-८ / हिन्दी अनुवाद / पृ.७८ । १५५. " त एते दश सम्यग्दृष्ट्यादयः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।" सर्वार्थसिद्धि /९/४५ । १५६. क — “इत ऊर्ध्वं गुणस्थानानां चतुर्णां द्वे श्रेण्यौ भवतः - उपशमकश्रेणी क्षपकश्रेणी चेति । " तत्त्वार्थराजवार्तिक/९/१/१८/ पृ.५९० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org