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________________ ३७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०५ गुणस्थानों का स्पष्टरूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया है। अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक जैनधर्म में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था? और यदि उसका विकास हो चुका था, तो उमास्वाति ने अपने मूलग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में या उसकी स्वोपज्ञटीका 'तत्त्वार्थभाष्य' में उसका उल्लेख क्यों नहीं किया? जबकि उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में आध्यात्मिक विशुद्धि (कर्मनिर्जरा) की दस अवस्थाओं को सूचित करते हुए एक लम्बा सूत्र बनाया है। यदि उनके सामने गुणस्थान की अवधारणा होती, तो निश्चय ही वे उस सूत्र के स्थान पर उसका प्रतिपादन करते, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में जिन दस अवस्थाओं का निर्देश है, उनमें और गुणस्थानों के नामकरण एवं क्रम में बहुत कुछ समानता है। मेरी दृष्टि में तो इन्हीं दस अवस्थाओं के आधार पर ही गुणस्थानसिद्धान्त का विकास हुआ है। इस सूत्र में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द, जैसे दर्शनमोह-उपशमक, दर्शनमोहक्षपक, (चारित्रमोह) उपशमक, (चारित्रमोह) क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, केवली (जिन) आदि उपलब्ध होते हैं।" १५१ वे आगे कहते हैं-"ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि समवायांग और षट्खण्डागम के प्रारम्भ में १४ गुणस्थानों के नामों का स्पष्ट निर्देश होकर भी उन्हें गुणस्थान नाम से अभिहित नहीं किया गया है। जहाँ समवायांग उन्हें 'जीवस्थान' कहता है, वहाँ प्रस्तुत 'जीवसमास' (ग्रन्थ) एवं षट्खण्डागम में उन्हें 'जीवसमास' कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जीवसमास और षट्खण्डागम, ये दोनों ग्रन्थ प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर-आगमों, कसायपाहुडसुत्त, तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य से परवर्ती हैं और इन अवस्थाओं के लिए गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख करनेवाली श्वेताम्बर-दिगम्बर रचनाओं से पूर्ववर्ती हैं। साथ ही ये दोनों ग्रन्थ समकालीन भी हैं।" १५२ अपने कथन का उपसंहार करते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं-"इससे यह फलित होता है कि जैनपरम्परा में लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। लगभग पाँचवीं शताब्दी में यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया, किन्तु तब इसे गुणस्थान न कहकर जीवस्थान या जीवसमास कहा गया। लगभग छठी शताब्दी से इसके लिए गुणस्थान शब्द रूढ़ हो गया।"१५२--- इस प्रकार यदि गुणस्थान-सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से विचार करें, तो मूलाचार, भगवती-आराधना, सर्वार्थसिद्धिटीका एवं कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार आदि सभी १५१. जीवसमास/ भूमिका/पृ.IV-V, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। १५२. वही/पृ.V। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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