________________
पञ्चम प्रकरण
डॉ० सागरमल जी के गुणस्थानविकासवाद एवं
सप्तभंगीविकासवाद
१
गुणस्थानविकासवाद
डॉ० सागरमल जी ने कुन्दकुन्द को उमास्वाति का उत्तरवर्ती और पाँचवीं शताब्दी ई० का सिद्ध करने के लिए दो नये वाद कल्पित किये हैं : गुणस्थान - विकासवाद और सप्तभंगी-विकासवाद । उन्होंने इन मिथ्याधारणाओं को जन्म देने की कोशिश की है कि गुणस्थान सिद्धान्त और नयप्रमाण - सप्तभंगी भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट नहीं हैं, अपितु आचार्य उमास्वाति के बाद के आचार्यों द्वारा विकसित किये गये हैं । वे लिखते हैं
" वस्तुतः कुन्दकुन्द और उमास्वाति के काल का निर्णय करने के लिए कुन्दकुन्द एवं उमास्वाति के ग्रन्थों में उल्लिखित सिद्धान्तों का विकासक्रम देखना पड़ेगा। यह बात सुनिश्चित है कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान और सप्तभंगी का स्पष्ट निर्देश है । गुणस्थान का यह सिद्धान्त समवायांग के १४ जीवसमासों के उल्लेखों के अतिरिक्त श्वेताम्बरमान्य आगमसाहित्य में सर्वथा अनुपस्थित है, यहाँ भी इसे श्वेताम्बर विद्वानों ने प्रक्षिप्त ही माना है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में भी इन दोनों सिद्धान्तों का पूर्ण अभाव है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र की सभी दिगम्बर- टीकाओं में इन सिद्धान्तों के उल्लेख प्रचुरता से पाये जाते हैं। पूज्यपाद देवनन्दी यद्यपि सप्तभंगी - सिद्धान्त की चर्चा नहीं करते, परन्तु गुणस्थान की चर्चा तो वे भी कर रहे हैं । दिगम्बरपरम्परा में आगमरूप में मान्य षट्खण्डागम तो गुणस्थान की चर्चा पर ही स्थित है । उमास्वाति के तत्त्वार्थ में गुणस्थान और सप्तभंगी की अनुपस्थिति स्पष्टरूप से यह सूचित करती है कि ये अवधारणाएँ उनके काल तक अस्तित्व में नहीं आयी थीं, अन्यथा आध्यात्मिक विकास और कर्मसिद्धान्त के आधाररूप गुणस्थान के सिद्धान्त को वे कैसे छोड़ सकते थे ? चाहे विस्ताररूप में चर्चा भले न करते, परन्तु उनका उल्लेख अवश्य करते ।" (जै. ध.या.स./ पृ.२४८-२५०) ।
वे एक अन्य ग्रन्थ में लिखते हैं- "हमारे लिए आश्चर्य का विषय तो यह है कि आचार्य उमास्वाति ( लगभग तीसरी - चौथी शती) ने जहाँ अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैनधर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है, वहाँ उन्होंने चौदह
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org