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३६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०४
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समस्त दार्शनिक तत्त्वों का अधिगम गुरुपरम्परा से
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वस्तुत: मान्य श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों ने यह धारणा बना ली है कि "तीर्थंकरों ने सवस्त्र तीर्थ का उपदेश दिया था, इसलिए श्वेताम्बरमत ही प्राचीन है, दिगम्बरमत तो विक्रम की छठी शताब्दी में कुन्दकुन्द ने चलाया था और श्वेताम्बर आगमों के आधार पर उन्होंने अपने ग्रन्थों की रचना की थी।" किन्तु कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में ऐसे अनेक जैन- दार्शनिक तत्त्व मिलते हैं, जो श्वेताम्बर - आगमों में उपलब्ध नहीं हैं। उनके बारे में श्वेताम्बर मुनियों और विद्वानों ने इस कल्पना को जन्म दिया है कि उनमें से कुछ तो कुन्दकुन्द ने स्वयं कल्पित किये हैं और अनेक का जैनेतर दर्शनों अनुकरण किया है।
यह कल्पना कितनी निराधार है, यह ऊपर प्रस्तुत किये गये प्रमाणों और युक्तियों से दृष्टिगोचर हो जाता है । कुन्दकुन्द ने स्वयं कहा है कि उन्होंने अपने ग्रन्थों में जो तत्त्वनिरूपण किया है, वह अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के उपदेश पर आधारित है, अतः जो दार्शनिक तत्त्व श्वेताम्बर - आगमों में नहीं मिलते, किन्तु कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलते हैं, वे कुन्दकुन्द को अपनी गुरुपरम्परा से ही प्राप्त हुए थे । जम्बूस्वामी के निर्वाणानन्तर तथा श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में संघभेद हो जाने से श्वेताम्बरपरम्परा उन दार्शनिक तत्त्वों के उपदेश से वंचित रह गई, १ ,१५० इसी कारण उनके आगमों में वे दार्शनिक तत्त्व उपलब्ध नहीं होते । दिगम्बरजैन - परम्परा के प्रवर्तक कुन्दकुन्द नहीं थे, अपितु ऐतिहासिक दृष्टि से वह सिन्धुसभ्यता से भी पूर्ववर्ती है, इसका सप्रमाण प्रदर्शन पूर्व में किया जा चुका है।
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१५०. श्वेताम्बराचार्यों का भी ऐसा कथन है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने आचार्य स्थूलभद्र को केवल दस पूर्वों का ही अर्थज्ञान दिया था, शेष चार पूर्वों का केवल शब्दज्ञान ही कराया था। (देखिये, षष्ठ अध्याय / प्रकरण १ / शीर्षक ११) ।
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