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अ०१०/प्र०४
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३६७ चतुर्थ अध्याय के ४२ सूत्रों में देवों के चार निकायों का विस्तार से वर्णन किया गया है, जब कि कुन्दकुन्दकृत पंचास्तिकाय की ११८वीं गाथा में 'देवा चउण्णिकाया' (देवों के चार निकाय हैं), केवल इतनी सूचना दी गयी है।
समयसार (गा.१०९) में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को बन्धसामान्य का हेतु तथा पञ्चास्तिकाय (गा.१३५-१४०) में प्रशस्तराग, अनुकम्पासंश्रित परिणाम तथा अकालुष्य को पुण्यास्रव का एवं प्रमादबहुलचर्या, कालुष्य, विषयलोलता, परपरिताप और परापवाद को पापास्रव का कारण बतलाया गया है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के षष्ठ अध्याय में प्रत्येक कर्म के विशिष्ट आस्रवहेतुओं का भी वर्णन किया गया है, जो अठारह सूत्रों में व्याप्त है। कुन्दकुन्दसाहित्य में यह उपलब्ध नहीं है।
तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय में द्रव्यकर्मों की ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों का तथा उनमें से प्रत्येक की उत्तर प्रकृतियों का खुलासा किया गया है और प्रत्येक कर्म की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति भी बतलायी गयी है। कुन्दकुन्दसाहित्य में इसके कहीं भी दर्शन नहीं होते।
नौवें अध्याय में बाईस परीषहों का वर्णन कर यह दर्शाया गया है कि किस गुणस्थान में कौन-कौन से परीषह होते हैं। यह भी प्रदर्शित किया गया है कि आर्त्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ध्यान में से किस गुणस्थान का जीव किस ध्यान का स्वामी होता है। असंख्येय-गुणश्रेणि-निर्जरा के पात्रों का भी वर्णन है। पुलाक, बकुश आदि पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों का भी निर्देश मिलता है। कुन्दकुन्दसाहित्य में इन सबका अभाव है।
इस प्रकार यदि विकास और विस्तार को अर्वाचीनता का लक्षण माना भी जाय, तो कुन्दकुन्दसाहित्य की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र में ये दोनों धर्म उपलब्ध होते हैं, अतः इस हेतु से भी तत्त्वार्थसूत्र कुन्दकुन्दसाहित्य से परवर्ती सिद्ध होता है।
उपर्युक्त प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध हो जाता है कि पं० दलसुख जी मालवणिया ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में जिस दार्शनिक विकास की कल्पना कर उन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार से परवर्ती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, वह कल्पना सर्वथा कपोलकल्पना है। तथा वर्ण्यविषय का विस्तार भी किसी ग्रन्थ के अर्वाचीन होने का अव्यभिचरित हेतु नहीं है। तथापि तत्त्वार्थसूत्र में कुन्दकुन्दसाहित्य की अपेक्षा प्रतिपादन शैली का विकास एवं वर्ण्यविषय का विस्तार भी उपलब्ध होता है। अतः यदि इन हेतुओं की कसौटी पर कसा जाय, तो भी कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रकार से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। फलस्वरूप पूर्व प्रस्तुत प्रमाणों से सिद्ध होनेवाला यह तथ्य अक्षुण्ण रहता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे।
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