________________
३६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र.४ की मान्यतानुसार प्रतिपादनशैली के ही विकास का नमूना है और पर्यायवाचियों के उल्लेख के रूप में व्याख्यागत विस्तार का निदर्शन भी है।
आगे वर्ण्य-विषय के विस्तार के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं
तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में निम्नलिखित विषयों का विशेष वर्णन है, जो कुन्दकुन्दसाहित्य में उपलब्ध नहीं हैं-सम्यग्दर्शन के निसर्गज और अधिगमज भेद, निर्देशस्वामित्वादि एवं सत्संख्याक्षेत्रादि अनुयोगद्वार, ज्ञान की प्रमाण संज्ञा और प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्षभेद, मतिज्ञान के मति, स्मृति आदि नामान्तर, मतिज्ञान की उत्पत्ति के निमित्त, मतिज्ञान की अवग्रहादि अवस्थाएँ, अवग्रहादि के विषयभूत पदार्थ, श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता और उसके दो, अनेक एवं बारह भेद, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के भेद, स्वामी एवं विषय, केवलज्ञान का विषय, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के ज्ञान में अन्तर तथा नैगमादिनय। इस दृष्टि से कुन्दकुन्द साहित्य की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र में वर्ण्यविषय का विस्तार है।
तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय में जीव के औपशमिकादि पाँच भावों के क्रमशः दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेदों का भी वर्णन किया गया है, जिनका कुन्दकुन्दसाहित्य में अभाव है। पंचास्तिकाय में पाँच भावों के केवल नामों का ही उल्लेख है।१४९ उक्त अध्याय में इन्द्रियों के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ये दो भेद, विग्रहगति में होनेवाले कार्मण काययोग, गतिप्रकार, अनाहारक रहने का समय, मुक्तजीव की गति का स्वरूप, जन्म के सम्मूर्च्छनादि भेद और उनके स्वामी, जीवों की योनियों के प्रकार, शरीर के औदारिक आदि पाँच भेद और उनकी विशेषताएँ, जीवों की वेद-व्यवस्था
और अनपवायु के स्वामी, इन सब का वर्णन किया गया है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ इन विषयों के वर्णन से शून्य हैं।
तृतीय अध्याय में सात पृथिवियों, उनमें स्थित नरकों की संख्या, नारकियों की दशा, नारकियों की आयु, जम्बूद्वीप के क्षेत्रों, वर्षधरपर्वतों, उनपर स्थित सरोवरों, सरोवरों में स्थित कमलों, कमलों में निवास करनेवाली देवियों, चौदह नदियों और उनकी सहायक नदियों, वर्षधरपर्वतों के विस्तार, भरत और ऐरावत क्षेत्रों में कालपरिवर्तन, कर्मभूमियों
और भोगभूमियों की संख्या, उनमें रहनेवाले मुनष्यों और तिर्यंचों की आयु इत्यादि का निरूपण है, जो कुन्दकुन्दसाहित्य में अनुपलब्ध है।
१४९. उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा॥ ५६॥ पञ्चास्तिकाय।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org