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अ०१०/प्र.४
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३६५ अन्तर्भूत प्रमाद को पृथक् दर्शाकर पाँच प्रत्यय प्रतिपादित किये हैं। (त.सू./८/१)। यह विशेषीकरण विकासवादियों की मान्यतानुसार प्रतिपादनशैली के विकास का उदाहरण है।
२. कुन्दकुन्द ने छह द्रव्यों, नौ पदार्थों, पाँच अस्तिकायों और सात तत्त्वों का श्रद्धान करनेवाले को सम्यग्दृष्टि कहा है।१४३ श्वेताम्बरीय 'स्थानांग' में भी नौ पदार्थों का ही कथन है।४४ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य-पाप को आस्रव तत्त्व में गर्भित कर केवल सात तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। यह सामान्यीकरण भी विकासवादियों के मतानुसार प्रतिपादनशैली के विकास का उदाहरण है।
३. षट्खण्डागम१४५ और कुन्दकुन्दसाहित्य१४६ दोनों में ज्ञान के पाँच भेदों में से प्रथम ज्ञान को 'आभिनिबोधिकज्ञान' के नाम से तथा अज्ञान के तीन भेदों में से प्रथम अज्ञान को मत्यज्ञान या कुमतिज्ञान के नाम से अभिहित किया गया है। श्वेताम्बरीय स्थानांगसूत्र में भी ऐसा ही है।१४७ कुन्दकुन्द ने आभिनिबोधिकज्ञान को मतिज्ञान भी कहा है। (नि.सा./ गा.१२)। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में 'आभिनिबोधिकज्ञान' शब्द का प्रयोग न कर 'मतिज्ञान' शब्द का प्रयोग किया गया है।४८ यह चुनाव भी विकासवादियों के मत से प्रतिपादनशैली के विकास का उदाहरण सिद्ध होता है।
४. षट्खण्डागम में 'सण्णा सदी मदी चिंता चेदि' सूत्र में संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता को. एकार्थक बतलाया गया है। (ष.खं. / पु.१३ / ५,५,४१ / पृ.२४४ )। कुन्दकुन्दसाहित्य में ऐसा उल्लेख कहीं भी नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त चार पर्यायवाचियों में 'अभिनिबोध' को जोड़कर पाँच को एकार्थक प्रतिपादित किया है, यथा-'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्' (१/१३)। यह भी विकासवादियों
१४३. छद्दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा।
सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो॥ १९॥ दंसणपाहुड। १४४. "नव सब्भावपयत्था पण्णत्ते, तं जहा-जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरो निज्जरा
बंधो मोक्खो।" स्थानांगसूत्र ९/६६५ (तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय / पृ.६)। १४५. "णाणाणुवादेण अस्थि मदि-अण्णाणी, सुद-अण्णाणी, विभंगणाणी, आभिणिबोहियणाणी,
सुदणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी, केवलणाणी चेदि।" (ष.खं / पु./१/१,१,११५)। १४६. आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि।
कुमदिसुदविभंगाणि य तिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ॥ ४१ ॥ पंचास्तिकाय। १४७. "पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणिबोहियणाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे
केवलणाणे।" स्थानांगसूत्र ५/३/४६३ (तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय / पृ.९)। १४८. "मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्।" त.सू./ १।९।
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