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३६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०४ ८. आत्मा,१४१ श्रमण, अद्धासमय (काल), निर्वाण,१४२ सर्वज्ञ आदि अनेक संज्ञाशब्द श्वेताम्बर आगमों में हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में नहीं हैं। मालवणिया जी की नवीनता या विकास की परिभाषा के अनुसार आगमों में इन शब्दों की उपलब्धि को भी विकास मानना होगा और ऐसा मानने पर तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा आगमों के अर्वाचीन होने का प्रसंग आयेगा।
इस प्रकार विषय-वैविध्य एवं स्पष्टीकरण, व्याख्या, शंकासमाधान आदि को ग्रन्थ की अर्वाचीनता का लक्षण माना जाय, तो श्वेताम्बर-आगम भी तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध होंगे। किन्तु वे तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन नहीं हैं, इससे स्पष्ट है कि उपर्युक्त विशेषताएँ ग्रन्थ की अर्वाचीनता के लक्षण नहीं हैं। अर्वाचीन ग्रन्थों में भी प्रयोजनवश विषयसंक्षेप हो सकता है और उसके लिए विषय की विविधता एवं स्पष्टीकरण, व्याख्या
आदि का परिहार किया जा सकता है। प्राथमिक शिष्यों के लिए परिमित और स्थूल विषयवाले ग्रन्थ ही उपयोगी होते हैं तथा प्रबुद्ध शिष्यों के लिए विस्तृत एवं सूक्ष्मविषयवाले ग्रन्थ। दोनों प्रकार के शिष्य सदा विद्यमान रहते हैं, अतः दोनों प्रकार के ग्रन्थों की रचना सदा से होती आयी है और सदा होती रहेगी।
विकासवादीमान्य-लक्षणानुसार तत्त्वार्थसूत्र में विकास भी है, विस्तार भी
यद्यपि विषयवैविध्य, विशेषीकरण, विभेदीकरण तथा व्याख्या-दृष्टान्तादिगत विस्तार रचनाशैली के विकास एवं ग्रन्थ की अर्वाचीनता के लक्षण नहीं हैं, तथापि तत्त्वार्थसूत्र में व्याख्या-दृष्टान्तादिगत विस्तार को छोड़कर ऐसा विषयवैविध्य या विषयविस्तार तथा विशेषीकरण-विभेदीकरण आदि विद्यमान हैं, जो कुन्दकुन्दसाहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होते। अतः जो विद्वान् इसे रचनागत विकास, अत एव ग्रन्थ की अर्वाचीनता का लक्षण मानते हैं, उनकी मान्यतानुसार भी तत्त्वार्थसूत्र कुन्दकुन्दसाहित्य की अपेक्षा अर्वाचीन सिद्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र में विद्यमान उपर्युक्त विशेषताओं के उदाहरण नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं
१. कुन्दकुन्द ने आस्रव के चार ही प्रत्यय बतलाये हैं : मिथ्यात्व, अविरमण (अविरति), कषाय और योग। (स.सा./ गा.१०९)। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने कषाय में १४१. क - "अप्पणा अप्पणो कम्मक्खयं करितए" (आत्मनाऽऽत्मनः कर्मक्षयं कर्तुमिति)।
ज्ञातृधर्मकथांगसूत्र / अध्ययन ५। ख - "एगप्पा अजिए सत्तू" (अपना अविजित आत्मा ही एकमात्र शत्रु है)।
उत्तराध्ययनसूत्र / २३/३८। १४२. "निव्वाणं ति अबाहं ति।" उत्तराध्ययनसूत्र २३ / ८३ ।
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