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अ०१०/प्र.४
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३६३ ५. तत्त्वार्थसूत्र में परिग्रह का लक्षण 'मूर्छा परिग्रहः' इस छोटे से सूत्र में ही सीमित कर दिया गया है, जबकि दशवैकालिक सूत्र में उसका कई गाथाओं में वर्णन है, जिनमें निम्नलिखित दो गाथाएँ प्रमुख हैं
जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति अ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तं महेसिणा॥ ६/२०॥ इनमें दिगम्बरों द्वारा उठाई गई शंका का श्वेताम्बरमत के अनुसार समाधान भी किया गया है। यह विवेचनात्मक एवं शंकासमाधनात्मक विस्तार अर्वाचीनता की परिभाषा में आ जायेगा, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में इसका अभाव है।
६. मालवणिया जी ने लिखा है कि "जीव के शुद्ध और अशुद्ध दोनों रूपों का वर्णन आगमों में विस्तार से है। कहीं-कहीं द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयों का आश्रय लेकर विरोध का समन्वय भी किया गया है। वाचक (उमास्वाति) ने भी जीव के वर्णन में सकर्मक (कर्मबद्ध) और अकर्मक (कर्ममुक्त) जीव का वर्णन मात्र कर दिया है।" (न्या.वा.व./ प्रस्ता./ पृ. १२७)। 'वर्णनमात्र कर दिया है' इस शब्दावली से स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा आगमों में वर्णित विषय विस्तृत है। यह विषयविस्तार मालवणिया जी की ही मान्यतानुसार विकास की श्रेणी में परिगणित किया जायेगा और तब आगम तत्त्वार्थसूत्र से उत्तरवर्ती सिद्ध होंगे।
७. मालवणिया. जी का एक वक्तव्य यह है कि "आचार्य कुन्दकुन्द ने भी अपने ग्रन्थों में भेदज्ञान कराने का प्रयत्न किया है। वे भी कहते हैं कि आत्मा मार्गणास्थान, गुणस्थान, नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव नहीं है, वह बाल, वृद्ध और तरुण नहीं है, वह राग, द्वेष, मोह नहीं है, क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं है, वह कर्म-नोकर्म नहीं है, उसमें वर्णादि नहीं हैं, इत्यादि भेदाभ्यास करना चाहिए। शुद्धात्मा का यह भेदाभ्यास (श्वेताम्बरीय) जैनागमों में भी मौजूद है ही। उसे ही पल्लवित करके आचार्य ने शुद्धात्मस्वरूप का वर्णन किया है।" (न्या.वा.वृ./ प्रस्ता./ पृ.१३३)।
किन्तु यह भेदाभ्यास तत्त्वार्थसूत्र में नहीं है, इसलिए मालवणिया जी की परिभाषा के अनुसार श्वेताम्बर-आगमों का यह विषय तत्त्वार्थसूत्र के विषय की अपेक्षा नवीन माना जायेगा, जिससे आगम तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती सिद्ध होंगे।
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