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________________ ३६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०४ का सयुक्तिक, सप्रमाण, सोदाहरण एवं सदृष्टान्त प्रतिपादन रहा हो, तो उसका विषयविवेचन युक्तियों, प्रमाणों, उदाहरणों, दृष्टान्तों और व्याख्याओं से भरा हुआ, अत एव विस्तृत हो सकता है। इसके विपरीत कोई अर्वाचीन ग्रन्थकार किसी प्राचीन ग्रन्थ या ग्रन्थों के सार से लोगों को अवगत कराने के लिए सूत्रशैली में संक्षिप्त ग्रन्थ निबद्ध कर सकता है। दिगम्बरपरम्परा में ईसा की दसवीं शताब्दी में एक बृहत्प्रभाचन्द्र नाम के आचार्य हुए हैं। उन्होंने उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर उससे भी छोटा तत्त्वार्थसूत्र रचा है, जिसमें मात्र १०७ सूत्र हैं, जब कि उमास्वामिकृत प्राचीन तत्त्वार्थसूत्र में ३५७ सूत्र हैं। आठवीं शताब्दी ई० (७८० ई०) के वीरसेन स्वामी ने ६८३९ (२७ गाथा-सूत्रों सहित) सूत्रयुक्त पाँच खण्डोंवाले और ३०,००० श्लोक प्रमाण छठे खण्डवाले विशालकाय षट्खण्डागम पर ७२ हजार श्लोक-प्रमाण धवला टीका लिखी है, जब कि दसवीं शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में हुए आचार्य नेमिचन्द्र ने षट्खण्डागम और उसकी धवलाटीका का सार गोम्मटसार में मात्र १७०६ गाथाओं में निबद्ध किया है।१३८ ये इस बात के जीते-जागते प्रमाण हैं कि ग्रन्थ के संक्षेप और विस्तार का कारण प्रयोजनभेद और कर्त्तागत रुचिभेद है, काल की पूर्वापरता नहीं। यह बात स्वयं मान्य मालवणिया जी एवं उनके सहयोगी सम्पादकों ने प्रज्ञापनासूत्र की प्रस्तावना में स्वीकार की है। षट्खण्डागम और प्रज्ञापनासूत्र के रचनाकाल की पूर्वापरता का विचार करते हुए वे लिखते हैं " The style of treatment i.e., its simplicity or otherwise, can not be determining factor in fixing up the chronological order of these works. This is so because the nature of the style was dependent on the objective of the author and on the nature of the subject-matter, simple or subtle. Hence we would be making a great blunder in fixing up the chronological order of Prajnapana and Satkhandagama if we were guided only by the fact that the treatment of the subjet-matter in the Satkhandagama is more detailed and subtle than that found in Prajnapana sutra."139 अनुवाद-"इन ग्रन्थों (प्रज्ञापनासूत्र एवं षट्खण्डागम) की प्रतिपादनशैली की सरलता या कठिनता इनके रचनाकाल की पूर्वापरता का निर्णायक हेतु नहीं हो सकती, क्योंकि शैली का स्वरूप ग्रन्थकर्ता के प्रयोजन एवं प्रतिपाद्य विषय की सरलता या १३८. जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण। तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं॥ ३९७॥ गोम्मटसार-कर्मकण्ड। 139. पण्णवणासुत्त / अंग्रेजी प्रस्तावना / पृष्ठ २३०/ सम्पादक-मुनि पुण्यविजय जी, पं० दलसुख मालवणिया, पं० अमृतलाल मोहनलाल भोजक/प्रकाशक, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई सन् १९६९ एवं १९७१, (षट्खण्डागम पु.१ / सम्पादकीय / पृष्ठ ५ एवं १० से उद्धृत)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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