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________________ अ०१०/प्र.४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३५९ मालवणिया जी के कथन का अभिप्राय यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की उपर्युक्त गाथा की रचना माध्यमिककारिका की 'नान्यया भाषया म्लेच्छः' इस कारिका के आधार पर की है। निरसन विषयवैविध्यादि अर्वाचीनता के लक्षण नहीं : इसके हेतु उपर्युक्त विषय-प्रतिपादनगत विशेषताओं में हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द और तत्त्वार्थसूत्रकार की दार्शनिक मान्यताओं में कोई भेद नहीं हैं। दोनों की मान्यताएँ जिनागमसम्मत हैं। अन्तर केवल यह है कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रतिपाद्य विषय की विविधता विशेषीकरण, व्याख्या और शंकासमाधान आदि का समावेश है, जब कि तत्त्वार्थसूत्र में सूत्रात्मक संक्षिप्तता के लिए सूत्रकार ने षट्खण्डागम, कुन्दकुन्दसाहित्य, मूलाचार, भगवती-आराधना आदि ग्रन्थों से प्राथमिक-शिष्योपयोगी मुख्य-मुख्य विषय ही चुनकर लिये हैं तथा विशेषीकरण, व्याख्या आदि को अधिकांशतः छोड़ दिया है। मालवणिया जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि "वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थ की रचना का प्रयोजन मुख्यतः संस्कृत भाषा में सूत्रशैली के ग्रन्थ की आवश्यकता की पूर्ति करना था।" (न्या.वा.वृ. / प्रस्ता. / पृ.११८)। मेरी दृष्टि से न केवल सूत्रशैली के ग्रन्थ की, अपितु ३५७ सूत्रवाले लघुकाय ग्रन्थ की आवश्यकता पूर्ण करना सूत्रकार का प्रयोजन था। किन्तु कुन्दकुन्द का प्रयोजन सूत्रशैली के लघुकाय ग्रन्थ की रचना नहीं था, बल्कि पृथक्-पृथक् ग्रन्थ में पृथक्-पृथक् विषय का सूक्ष्म और सयुक्तिक विवेचन करना था। इसलिए जहाँ तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'उपयोगो लक्षणम्' कहकर दो शब्दों में जीव के लक्षण (द्रव्यस्वरूप) का निरूपण समाप्त कर दिया, वहाँ कुन्दकुन्द समयसार के जीवाजीवाधिकार की ६८ गाथाओं में जीव के लक्षण (द्रव्यस्वरूप) का विवेचन करते हुए थके नहीं, तथा जहाँ उमास्वामी ने आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष के लक्षण एक-एक सूत्र में ही निबद्ध कर दिये हैं, वहाँ कुन्दकुन्द ने इनके निरूपण में एक-एक स्वतन्त्र अधिकार प्रयुक्त किया है। इसके अतिरिक्त जहाँ उमास्वामी ने जैनदर्शन का निरूपण केवल तत्त्वार्थसूत्र के ३५७ सूत्रों में ही सम्पन्न किया है, वहाँ कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय, अट्ठपाहुड, बारसअणुवेक्खा आदि अनेक ग्रन्थों में विस्तारित किया है। इतने से ही समझा जा सकता है कि कुन्दकुन्द का विषयप्रतिपादन उमास्वामी के विषयप्रतिपादन की अपेक्षा कितना विविध और व्यापक है। इस संक्षेप और विस्तार का कारण केवल प्रयोजनभेद है, काल की पूर्वापरता नहीं। प्राचीन ग्रन्थकर्ता का प्रयोजन यदि विविध विषयों या विषय के विविध पक्षों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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