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३५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र.४ से समस्त द्रव्यों का। (नि.सा./ गा.१५९)। तथा केवली के सर्वज्ञ (समस्त द्रव्यों का ज्ञाता) होने के यथार्थ को युक्ति से सिद्ध किया है। (प्र.सा./१/४७-५१)। अनुत्पन्न और विनष्ट पर्यायों का ज्ञान होने के पक्ष में भी युक्तियाँ दी हैं। (प्र.सा./१/ ३७-३९)।
९. तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञानादि के लब्धि और उपयोग ये दो भेद ही मिलते हैं। कुन्दकुन्द ने उपलब्धि, भावना और उपयोग ये तीन भेद किये हैं। (पं.का./गा.४३.१)।
१०. पाँच ज्ञानों में से नयों का समावेश किस ज्ञान में होता है, उमास्वाति ने इसकी चर्चा नहीं की है। आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रुत के भेदों की चर्चा करते हुए नयों को भी श्रुत का एक भेद बतलाया है। उन्होंने श्रुत के भेद इस प्रकार किये हैं-लब्धि, भावना, उपयोग और नय (पं.का. / गा. ४३.२)। ३.३. नयनिरूपगणगत विशेषताएँ
कुन्दकुन्द की नय-निरूपण-विषयक विशेषताओं को परिगणित करते हुए मालवणिया जी लिखते हैं
१. कुन्दकुन्द ने नयों के नैगमादि भेदों का वर्णन नहीं किया, किन्तु निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा मोक्षमार्ग का और तत्त्वों का पृथक्करण किया है। (श्वेताम्बर) आगमों में निश्चय और व्यवहार की चर्चा है। कुन्दकुन्द ने इन नयों की व्याख्या (श्वेताम्बरीय) आगमों के ही अनुकूल की है, किन्तु इनके अनुसार विचारणीय विषयों की अधिकता कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में स्पष्ट है। उन विषयों में आत्मादि कुछ विषय तो ऐसे हैं, जो आगम में भी हैं, किन्तु आगमिक वर्णन में यह नहीं बताया गया कि यह वचन अमुक नय का है। कुन्दकुन्द के विवेचन के प्रकाश में यदि आगमों के उन वाक्यों का बोध किया जाय, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आगम के वे वाक्य किस नय के आश्रय से प्रयुक्त हुए हैं। (न्या.वा.वृ./ प्रस्ता./ पृ.१३९)। २. कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा हैजह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेहूँ।
ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं॥ ८॥ यह कथन बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की माध्यमिक कारिका के इस कथन से समानता रखता है
नान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितुं यथा। न लौकिकमृते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा॥
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