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________________ अ०१०/प्र.४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३५७ ३. उमास्वाति ने अव्यभिचारि, प्रशस्त और संगत ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बतलाया है,१३५ किन्तु कुन्दकुन्द ने संशय, विमोह और विभ्रम से रहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा है-'संसयविमोह-विब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं' (नि.सा. / गा.५१)। बौद्धादि दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान के प्रसंग में हेय और उपादेय शब्दों का प्रयोग किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी हेयोपादेय तत्त्वों के अधिगम को सम्यग्ज्ञान कहा है-'अधिगमभावो णाणं हेयोपादेयतच्चाणं' (नि.सा./ गा.५२)। ४. उमास्वाति ने पूर्वपरम्परा के अनुसार मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञानों को क्षायोपशमिक और केवल को क्षायिक ज्ञान कहा है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने क्षायोपशमिक ज्ञानों के लिए विभावज्ञान और क्षायिकज्ञान के लिए स्वभावज्ञान शब्दों का प्रयोग किया है। (नि.सा./ गा.१०-१२,१५)। ५. कुन्दकुन्द ने उमास्वाति की तरह प्राचीन आगमों की व्यवस्था के अनुसार ही ज्ञानों में प्रत्यक्षत्व-परोक्षत्व की व्यवस्था की है। किन्तु प्रवचनसार में प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्व को युक्ति से भी सिद्ध किया गया है। (प्र.सा./१/५७-५८)। ६. ज्ञप्ति का तात्पर्य अर्थात् ज्ञान से अर्थ को जानने का मतलब क्या है? क्या ज्ञान अर्थरूप हो जाता है, यानी ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाता है? या जैसा अर्थ का आकार होता है, वैसा ही आकार ज्ञान का हो जाता है? या ज्ञान अर्थ में प्रविष्ट हो जाता है या अर्थ ज्ञान में? अथवा ज्ञान अर्थ में उत्पन्न होता है? इन प्रश्नों का उत्तर आचार्य कुन्दकुन्द ने दूध के बर्तन में पड़े हुए इन्द्रनीलमणि के दृष्टान्त द्वारा दिया है। (प्र.सा./१/३०-३१)। ७. कुन्दकुन्द और उमास्वाति१३६ दोनों ने केवली के ज्ञान और दर्शन का यौगपद्य माना है। विशेषता यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने यौगपद्य के समर्थन में दृष्टान्त दिया है कि जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप युगपद् होते हैं, वैसे ही केवली के ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं। (नि.सा./ गा.१६०)। ८. आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी अभेददृष्टि के अनुरूप निश्चयदृष्टि से सर्वज्ञ की नई व्याख्या की है और भेददृष्टि का अवलंबन कर व्यवहारनय से सर्वज्ञ की वही व्याख्या की है जो (श्वेताम्बरीय) आगमों में तथा उमास्वाति के 'तत्त्वार्थ' में है।३७ अर्थात् निश्चयनय से केवली को केवल आत्मा का ज्ञाता कहा है और व्यवहारनय १३५. यह अर्थ वस्तुतः तत्त्वार्थधिगमसूत्र के भाष्यकार ने किया है, जो तत्त्वार्थसूत्रकार से भिन्न हैं। (देखिए 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक षोडश अध्याय)। १३६. "केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १/३१ । १३७. "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।" तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १/३०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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