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३५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०४ १७. परमात्म-वर्णन में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी समन्वयशक्ति का परिचय दिया है। अपने काल में 'स्वयम्भू' (ब्रह्मा) की प्रतिष्ठा को देखकर 'स्वयम्भू' शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए जैनसम्मत अर्थ में कर दिया है। (प्र.सा.१ / १६)। इतना ही नहीं भावपाहुड (गा.१४९)में कर्मविमुक्त, शुद्ध आत्मा के लिए शिव, परमेष्ठिन्, विष्णु , चतुर्मुख, बुद्ध और परमात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग करके यह सूचित किया है कि तत्त्वतः देखा जाय तो परमात्मा का रूप एक ही है, नाम भले ही नाना हों। (न्या.वा.व./ प्रस्ता./ पृ.१२८)।
१८. कुन्दकुन्द ने अन्य दर्शनों में प्रसिद्ध 'सर्वगत' (सर्वव्यापक) शब्द का प्रयोग सर्वज्ञ के अर्थ में किया है। (प्र.सा.१ / २३,२६)। तत्त्वार्थसूत्रकार ने ऐसा नहीं किया।
१९. कुन्दकुन्द ने परिणमनशील होने के कारण आत्मादि द्रव्यों को कर्ता कहा है और उनके परिणाम को कर्म। (तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा कथन नहीं है)।
२०. कुन्दकुन्द ने आत्मा के शुभ, अशुभ और शुद्ध इन तीन उपयोगों का वर्णन कर उन्हें क्रमशः स्वर्ग, नरक और मोक्ष का हेतु बतलाया है। (प्र.सा./१/९, ११-१३)। तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता ने इन उपयोगों का नाम भी नहीं लिया। ३.२. प्रमाणनिरूपणगत विशेषताएँ
यतः जिनागम में ज्ञान को प्रमाण कहा गया है, इसलिए प्रमाणचर्चा शीर्षक के नीचे माननीय मालवणिया जी लिखते हैं-"इतना तो किसी से छिपा नहीं रहता कि वाचक उमास्वाति की ज्ञानचर्चा से आ० कुन्दकुन्द की ज्ञानचर्चा में दार्शनिक विकास की मात्रा अधिक है। यह बात आगे की चर्चा से स्पष्ट हो सकेगी।" (न्या.वा.व./ प्रस्ता./ पृ.१३४)। इस चर्चा में वे कहते हैं
१. कुन्दकुन्द ने आत्मा के साथ ज्ञानादिगुणों का तथा ज्ञानगुण के साथ अन्य गुणों का अभेद प्रतिपादित कर एवं केवली भगवान् को निश्चयनय से केवल आत्मा को ही जाननेवाला कहकर जैनदर्शन को ब्रह्माद्वैतवाद और विज्ञानाद्वैतवाद के निकट रख दिया है। (न्या.वा.व./ प्रस्ता./ पृ. १३४-१३५)। तत्त्वार्थसूत्र में इसकी झलक नहीं मिलती।
२. "दार्शनिकों में यह एक विवाद का विषय रहा है कि ज्ञान को स्वप्रकाशक माना जाय या परप्रकाशक अथवा स्वपरप्रकाशक? वाचक (उमास्वाति) ने इस चर्चा को ज्ञान के विवेचन में छेड़ा ही नहीं है। सम्भवतः कुन्दकुन्द ही प्रथम जैन आचार्य हैं, जिन्होंने (नि.सा. / गा.१६०-१७० में) ज्ञान को स्वपर-प्रकाशक मानकर इस चर्चा का सूत्रपात जैनदर्शन में किया है। आ० कुन्दकुन्द के बाद के सभी आचार्यों ने आचार्य के इस मन्तव्य को एकस्वर से माना है।" (न्या.वा.वृ. / प्रस्ता. / पृ.१३५)।
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