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________________ अ०१०/प्र०४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३५५ इतना ही नहीं, गुणों को भी मूर्त और अमूर्त विभागों में विभक्त किया है। (प्र.सा. / २/३८-३९)। १२. आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार नयों से पुद्गलद्रव्य की जो व्याख्या की है, वह अपूर्व है। उनका कहना है कि निश्चयनय की अपेक्षा से परमाणु ही पुद्गल द्रव्य कहा जाना चाहिए और व्यवहारनय की अपेक्षा से स्कन्ध को पुद्गल कहना चाहिए। (नि.सा./गा.२९)। मालवणिया जी का अभिप्राय यह है कि उमास्वाति ने ऐसी व्याख्या नहीं की है, अतः कुन्दकुन्द की व्याख्या विकास का लक्षण है। १३. आचार्य कुन्दकुन्द ने स्कन्ध के छह भेद बतलाये हैं, जो उमास्वाति के तत्त्वार्थ में तथा श्वेताम्बरीय आगमों में उस रूप में देखे नहीं जाते। वे छह भेद ये हैं-१. अतिस्थूल-पृथ्वी, पर्वतादि, २. स्थूल-घृत, जल, तैलादि, ३. स्थूलसूक्ष्म-छाया, आतप आदि, ४. सूक्ष्म-स्थूल-स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्रेन्द्रिय के विषयभूत स्कन्ध, ५. सूक्ष्म-कार्मणवर्गणा-प्रायोग्य स्कन्ध तथा ६. अतिसूक्ष्म-जो कार्मणवर्गणा के भी योग्य न हों, वे स्कन्ध। (पं.का./गा.७६ तथा नि.सा. / गा.२१-२४)। १४. उमास्वाति ने परमाणु का जो लक्षण बतलाया है, कुन्दकुन्द ने उसे और भी स्पष्ट किया है। (पं.का./ गा.७७-८१, नि.सा./ गा.२५-२७)। १५. श्वेताम्बर-आगमों में जीव के शुद्ध और अशुद्ध दोनों रूपों का वर्णन विस्तार से है। कहीं-कहीं द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयों का आश्रय लेकर विरोध का समन्वय भी किया गया है। उमास्वाति ने भी जीव के वर्णन में सकर्मक (कर्मसहित) और अकर्मक (कर्मरहित) जीव का वर्णन मात्र कर दिया है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के आगमोक्त वर्णन को समझने की चाबी बता दी है, जिसका उपयोग करके आगम के प्रत्येक वर्णन को हम समझ सकते हैं कि आत्मा के विषय में आगम में जो अमुक बात कही गई है, वह किस दृष्टि से है। जैन आगमों में निश्चय और व्यवहार ये दो दृष्टियाँ क्रमशः स्थूल (लौकिक) और सूक्ष्म (तत्त्वग्राही) मानी जाती रही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मनिरूपण इन्हीं दो दृष्टियों का आश्रय लेकर किया है। आत्मा के पारमार्थिक शुद्धरूप का वर्णन निश्चयनय के आश्रय से और अशुद्ध या लौकिक (स्थूल) आत्मा का वर्णन व्यवहारनय से किया है। (न्या.वा.वृ। प्रस्ता./ पृ.१२७-१२८)। १६. कुन्दकुन्द ने आत्मा के तीन प्रकार बतलाये हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। (मो.पा./ गा.४,नि.सा. / गा.१४९-१५१)। तत्त्वार्थसूत्र में इनका उल्लेख नहीं मिलता। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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