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अ०१०/प्र.४
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३५३ किया है। इसका प्रयोजन है तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में दार्शनिक विकास सिद्ध करना, जिससे कुन्दकुन्द को उमास्वाति से परवर्ती साबित किया जा सके। जिन उपर्युक्त वादों को मालवणिया जी ने जैनेतर दर्शनों से अनुकृत बतलाया है, वे वस्तुतः जिनोपदिष्ट ही हैं, यह ऊपर सप्रमाण-सयुक्ति सिद्ध किया जा चुका है। अतः कुन्दकुन्द के साहित्य में दार्शनिक विकास सिद्ध करने के लिए मालवणिया जी द्वारा प्रकल्पित प्रथम हेतु हेत्वाभास सिद्ध होकर विफल हो जाता है।
विषयवैविध्य एवं व्याख्या-दृष्टान्तादिगत विस्तार
अर्वाचीनता के लक्षण नहीं मालवणिया जी-प्ररूपित विषयप्रतिपादनगत विशेषताएँ अब द्वितीय हेतु विचारणीय है। द्वितीय हेतु के रूप में पं० दलसुख जी मालवणिया जी ने तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा कुन्दकुन्द-साहित्य में प्रतिपाद्य विषय की विविधता और व्याख्या-दृष्टान्तादि-कृत विस्तार का उल्लेख किया है। इसके प्रमाण हेतु उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्दसाहित्य के विषयप्रतिपादन में निम्नलिखित विशेषताएँ बतलायी हैं। इन विशेषताओं का वर्णन माननीय मालवणिया जी ने 'न्यायावतारवार्तिकवृत्ति' की प्रस्तावना में पृष्ठ ११९ से १४० तक किया है३.१. प्रमेयनिरूपणगत विशेषताएँ
१. उमास्वाति ने सात तत्त्वों को ही सम्यग्दर्शन का विषय कहा है, किन्तु कुन्दकुन्द ने छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्व इन सब का श्रद्धान करनेवाले को सम्यग्दृष्टि निरूपित किया है।
२. उमास्वाति ने जीवादि सात तत्त्वों को अर्थ कहा है। कुन्दकुन्द ने द्रव्य, गुण और पर्याय को भी 'अर्थ' संज्ञा दी है। (प्र.सा./१/८७)। इसे मालवणिया जी ने कुन्दकुन्द द्वारा किया गया नया प्रयोग बतलाया है।
३. कुन्दकुन्द ने द्रव्य को 'अर्थ' संज्ञा देकर तथा गुणपर्यायों को द्रव्य में ही समाविष्ट कर परमसंग्रहावलम्बी अभेदवाद का समर्थन किया है (प्र.सा. / २ / १,९), उमास्वाति ने ऐसा नहीं किया।
४. कुन्दकुन्द ने आगमोक्त द्रव्य-पर्याय, देह-आत्मा आदि के भेदाभेद को निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा स्पष्ट (युक्तियुक्त सिद्ध) किया है। (उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र
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