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३५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०४ "एवमीदृशं साङ्ख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासाः प्ररूपयन्ति तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो दुःशक्यः परिहर्तुम्।"(आ.ख्या. / स.सा. / गा. ३३२-३४४)।
__ अनुवाद-"इस प्रकार कुछ श्रमणाभास स्वबुद्धि के दोष से आगम के अभिप्राय को समझे बिना ही सांख्यमत का अनुसरण करते हैं। उनके इस प्रकार प्रकृति (पुद्गलकर्मों) को एकान्त से कर्ता मान लेने पर सभी जीव सर्वथा अकर्ता सिद्ध हो जाते हैं। तब 'जीव कर्ता है' इस आगमवचन की अवमानना का दोष दूर करना दुष्कर है।"
इस कथन से तो यह सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द सांख्यदर्शन से अत्यन्त असहमत हैं। वे उसके इस मत को अमान्य करते हैं कि आत्मा सर्वथा अकर्ता है। वे आत्मा के कथंचित् कर्ता होने का प्रतिपादन करते हैं, तथा प्रकृति (पुद्गलकर्मों) के सर्वथा कर्ता होने का भी निषेध करते हैं। इससे मालवणिया जी की. यह स्थापना मिथ्या सिद्ध हो जाती है कि कुन्दकुन्द ने सांख्यमत के पुरुष-अकर्तृत्व का समर्थन किया है। तथा जब ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को जैनदर्शन में कर्मप्रकृति या 'प्रकृति' शब्द से भी अभिहित किया गया है, तब कुन्दकुन्द द्वारा कर्म के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाना सांख्यदर्शन का अनुकरण कैसे कहला सकता है? तथा सांख्य के प्रकृति
और पुरुष एवं जैनदर्शन के पुद्गलकर्म और आत्मा के स्वरूपों में तो जमीन-आसमान का अन्तर है, तब 'कर्म' शब्द के स्थान में 'प्रकृति' शब्द के प्रयोग से कुन्दकुन्द ने दोनों की किस समानता की ओर संकेत किया है, इसका खुलासा माननीय मालवणिया जी ने नहीं किया। वस्तुतः कुन्दकुन्द ने सांख्य की प्रकृति के समान पुद्गलकर्मों को रागादिभावों का कर्ता तथा आत्मा को सांख्य के पुरुष के समान रागादिभावों का अकर्ता माननेवाले श्रमणों को जिनागमविरुद्ध मान्यता का अनुयायी कहकर सांख्यदर्शन और जैनदर्शन के पारस्परिक वैपरीत्य का संकेत किया है। इससे सिद्ध है कि मालवणिया जी ने कुन्दकुन्द के मत को विपरीतरूप में प्रस्तुत किया है।
निष्कर्ष इस प्रकार हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द ने, न तो ब्रह्माद्वैत या विज्ञानाद्वैत का अनुकरण कर जैनदर्शन को अद्वैतवादी रूप दिया है, न ही सांख्यदर्शन से प्रभावित होकर जीव के अकर्तृत्ववाद, परिणमनरूप-कर्तृत्ववाद एवं शुभाशुभ-शुद्धोपयोगवाद आदि नये वादों का जैनदर्शन में समावेश किया है। मालवणिया जी ने अपने कल्पना-प्रवण मस्तिष्क से तथ्यों को अँधेरे में ढकेल कर तथा मिथ्या एवं विपरीत व्याख्याएँ कर कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उक्त नवीन वादों या मतों का अस्तित्व सिद्ध करने का प्रयास
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