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________________ अ०१० / प्र० ४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३५१ से ध्रुव हो, तो उसके एकस्वभावात्मक ही होने का प्रसंग आयेगा, जिससे अवस्थाभेद घटित नहीं होगा। ऐसा होने पर उसकी संसार और मोक्ष अवस्थाएँ भी उपपन्न नहीं होंगी।" इस प्रकार श्वेताम्बर - शास्त्रों में भी यह उल्लेख है कि जीव के परिणमनशील या कर्त्ता - अकर्त्ता होने का उपदेश भगवान् महावीर ने ही दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी भगवान् महावीर के ही उपदेश का अनुसरण कर जीव के कर्तृत्व-अकर्तृत्व का प्रतिपादन किया है । अतः श्वेताम्बरग्रन्थों से भी सिद्ध होता है कि मालवणिया जी का उपर्युक्त कथन प्रमाणविरुद्ध, अत एव स्वकल्पित है। २.६. सांख्य और जैन मतों के पारस्परिक वैपरीत्य का प्रदर्शन मालवणिया जी का मत मालवणिया जी कहते हैं- " आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से यह जाना जाता है कि वे सांख्यदर्शन से पर्याप्त मात्रा में प्रभावित हैं। जब वे आत्मा के अकर्तृत्व आदि का समर्थन करते हैं, तब वह प्रभाव स्पष्ट दिखता है। इतना ही नहीं, किन्तु सांख्यों की ही परिभाषा का प्रयोग करके उन्होंने संसारवर्णन भी किया है। सांख्यों के अनुसार प्रकृति और पुरुष का बन्ध ही संसार है। जैनागमों में प्रकृतिबन्ध नामक बन्ध का एक प्रकार माना गया है। अतएव आचार्य ने अन्य शब्दों की अपेक्षा प्रकृति शब्द को संसारवर्णन के प्रसंग में प्रयुक्त करके सांख्य ओर जैनदर्शन की समानता की ओर संकेत किया है।" (न्या.वा.वृ./ प्रस्ता. / पृ.१३०) । निरसन सर्वप्रथम तो यह कथन मिथ्या है कि कुन्दकुन्द सांख्यदर्शन से पर्याप्त मात्रा में प्रभावित हैं। उन्होंने तो उन जैनश्रमणों को मिथ्यादृष्टि कहा है जो सांख्यमत की प्रकृति के समान पुद्गलकर्मों को ही जीव के रागादिभावों का कर्त्ता और जीव को उनका अकर्त्ता मानते थे । कुन्दकुन्द उनकी मान्यताओं का विस्तार से वर्णन करने के बाद समयसार में लिखते हैं एवं संखुवएसं जे उ परूविंति एरिसं समणा । तेसिं पयडी कुव्वइ अप्पा य अकारया सव्वे ॥ ३४० ॥ अनुवाद - " जो श्रमण इस प्रकार सांख्यमत का प्ररूपण करते हैं, उनके मत में प्रकृति ही सब करती है और आत्मा सभी अकारक हैं । " टीकाकार अमृतचन्द्र कुन्दकुन्द के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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