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३५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र० ४
३. यदि सांख्यमत की 'प्रकृति' के समान पुद्गलकर्म रागादिभाव करके जीव को कर्मबन्धन में बाँधे और मुक्त भी करें, तब रागादिभावों के समान सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमन भी पुद्गलकर्मों के ही द्वारा किये जाने का प्रसंग आयेगा । इससे जड़ पुद्गलकर्म आत्मा के समान चेतन सिद्ध होंगे। फलस्वरूप सम्यग्दर्शन के लिए पुद्गलकर्मों का अजीवतत्त्व के रूप में श्रद्धान करने का जिनोपदेश मिथ्या साबित होगा। अथवा पुद्गलकर्म जीव के बन्ध - मोक्ष - नियामक बन जाने से ईश्वर के पद पर प्रतिष्ठित हो जायेंगे। तब बन्धमोक्ष के विषय में जीव के परतंत्र सिद्ध होने से उसके लिए मोक्ष का उपदेश उपपन्न नहीं होगा ।
अतः जीवादि सभी द्रव्यों का परिणामी होना, उनका यथायोग्य स्वभाव और विभावरूप से ही परिणमित होना, परद्रव्यरूप से परिणमित न होना एवं परिणमन करनेवाले की ही 'कर्ता' संज्ञा होना, इन द्रव्यस्वभावों के कारण ही जीवों के लिए जिनेन्द्रदेव के मोक्षोपदेश का औचित्य सिद्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि ये द्रव्यस्वभाव जिनेन्द्रदेव द्वारा ही उपदिष्ट हैं। उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् इस तत्त्वार्थसूत्र में उत्पादव्यय शब्दों के द्वारा उपर्युक्त द्रव्यस्वभावों का निर्देश कर दिया गया है। इस सूत्र का आगमानुसारी होना तो श्वेताम्बरों को भी मान्य है । अतः यह निर्विवाद है कि उपर्युक्त द्रव्यस्वभाव जिनागमोक्त हैं । तथा जब जीवादि द्रव्यों का यथायोग्य स्वभाव और विभावरूप से ही परिणमन संभव है, परद्रव्यरूप से नहीं, तब वे स्वभाव और विभाव के ही कर्त्ता सिद्ध होने से परद्रव्य के अकर्त्ता स्वतः सिद्ध होते हैं । इस प्रकार जीव के कर्तृत्व और अकर्तृत्व दोनों धर्म जिनागमोक्त ही हैं। इसलिए मालवणिया जी का यह कथन युक्ति और प्रमाण के विरुद्ध है कि कुन्दकुन्द ने सांख्यमत का अनुकरण कर जीव को कर्त्ता और अकर्त्ता कहा है। ऐसा कहकर तो उन्होंने श्वेताम्बर आगमों एवं तत्त्वार्थसूत्र को भी सांख्यदर्शन के आधार पर निर्मित सिद्ध कर दिया है, क्योंकि उनमें भी उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् सूत्र के अनुसार जीवादि - द्रव्यों को परिणमनशील, अत एव कर्त्ता-अकर्त्ता माना गया है। किन्तु चूँकि जीव को परिणमनशील या कर्त्ता - अकर्त्ता माने बिना उसका संसारी और मुक्त होना घटित नहीं होता, अतः उसके परिणमनशील या कर्त्ता-अकर्त्ता होने का उपदेश जिनेन्द्रदेव ने ही दिया है, यह तत्त्वार्थाधिगम के भाष्यकार ने भी स्वीकार किया है। यथा
" उत्पादव्ययौ धौव्यं च सतो लक्षणम्। यदिह मनुष्यत्वादिना पर्यायेण व्ययत आत्मनो देवत्वादिना पर्यायेणोत्पादः एकान्तध्रौव्ये आत्मनि तत्तथैकस्वभावतयाऽवस्थाभेदानुपपत्तेः । एवं च संसारापवर्गभेदाभावः ।" (५/२९) ।
अनुवाद - " सत् का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य है । आत्मा का मनुष्यत्वादिपर्याय से विनाश होता है और देवत्वादि पर्याय से उत्पाद होता है । यदि वह एकान्तरूप
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