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अ०१०/प्र०४
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३४९ से आत्मा को अकर्ता कहा है और 'जो परिणमनशील हो, वह कर्ता है' इस सांख्यसम्मत व्याप्ति के बल से आत्मा को कर्ता भी कहा है, क्योंकि वह परिणमनशील है। (न्या.वा.वृ. । प्रस्ता./ पृ.१२९)।
निरसन किन्तु कुन्दकुन्द ने सांख्यमत का अनुकरण कर आत्मा को अकर्ता और कर्ता कहा है, जिनागम के आधार पर नहीं, यह निष्कर्ष मान्य विद्वान् ने किन प्रमाणों और युक्तियों के आश्रय से निकाला है, इसका उल्लेख नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि उनका यह मत कपोलकल्पित है।
दूसरी बात यह है कि कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में कहा है कि मैंने सम्पूर्ण तत्त्वनिरूपण श्रुतकेवली के उपदेश के आधार पर किया है, इस कथन को असत्य मानने का कोई कारण नहीं है।
तीसरी बात यह है कि द्रव्य का उत्पाद-व्यय अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना परिणमन कहलाता है, जैसे दूध का दही-अवस्था को अथवा जीव का अक्रोध से क्रोध दशा को प्राप्त होना। इसी को दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जाता है कि दूध, दही का या जीव, क्रोध का उत्पादक, जन्मदाता या कर्ता है, क्योंकि दूध और जीव के क्रमशः दही और क्रोध-रूप परिणमन करने से ही दही एवं क्रोधरूप परिणाम या कार्य की उत्पत्ति होती है। इस तरह परिणमन करना
और कर्त्ता होना एक ही बात है. अलग-अलग नहीं। जीवादि सभी द्रव्यों का इस प्रकार परिणामी होना तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन चार द्रव्यों का स्वभावरूप से ही परिणमित होना और जीव तथा पुद्गल का स्वभाव-विभाव दोनों रूप से परिणमित होना, किन्तु परद्रव्यरूप से परिणमित न होना एवं परिणमन करनेवाले की ही 'कर्ता' संज्ञा होना, ये सभी द्रव्यस्वभाव जिनोपदिष्ट ही सिद्ध होते हैं, क्योंकि इनके बिना जिनेन्द्रदेव का मोक्षोपदेश उपपन्न नहीं होता। यथा
१. यदि जीव रागादि-विभाव रूप से परिणमित न हो, अर्थात् रागादिभाव का कर्ता न हो, तो उसके सदा शुद्ध रहने का प्रसंग आयेगा, तब वह मुक्त ही ठहरेगा। इस स्थिति में जिनेन्द्र भगवान् का जीवों के लिए मोक्ष-पौरुष करने का उपदेश निरर्थक सिद्ध होगा।
२. यदि रागादिभावों के कर्ता पुद्गलकर्म हों और कर्मबन्धन में जीव बँधे, तो जीव कभी मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि कर्म सदा रागादिभाव उत्पन्न करते रहेंगे, परिणामस्वरूप जीव सदा कर्मबन्धन में बँधता रहेगा। इस स्थिति में भी भगवान् का मोक्षोपदेश निरर्थक ठहरेगा।
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