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३४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र.४ २.४. शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग जिनोपदिष्ट
मालवणिया जी का मत __ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रतिपादित जो भी सिद्धान्त श्वेताम्बर-आगमों में उपलब्ध नहीं होता, उसे मालवणिया जी ने सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों से गृहीत मान लिया है। इस तथ्य को तो उन्होंने संभव ही नहीं माना कि वे सिद्धान्त कुन्दकुन्द को उनके परम्परागुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु से प्राप्त हुए थे। इसीलिए वे लिखते हैं
"सांख्यकारिका में कहा है कि धर्म (पुण्य) से ऊर्ध्वगमन होता है, अधर्म (पाप) से अधोगमन होता है, किन्तु ज्ञान से मुक्ति मिलती है (कारिका ४४)। इसी बात को आचार्य (कुन्दकुन्द ) ने जैन परिभाषा का प्रयोग करके प्रवचनसार (गा.१ / ९,११-१३,२/८९) में कहा है कि आत्मा के तीन अध्यवसाय होते हैं : शुभ, अशुभ
और शुद्ध। शुभाध्यवसाय का फल स्वर्ग है, अशुभ का नरकादि और शुद्ध का मुक्ति।" (न्या.वा.व./ प्रस्ता./ पृ.१३०)।
निरसन यहाँ भी वही पूर्व प्रश्न खड़ा होता है कि मालवणिया जी को इस बात का ज्ञान किस प्रमाण से हुआ है कि कुन्दकुन्द ने सांख्यकारिका में वर्णित धर्म, अधर्म
और ज्ञान को आत्मा के शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोगों के नाम से३३ जैनदर्शन में समाविष्ट किया है और उनका उपदेश उन्हें अपनी गुरुपरम्परा से प्राप्त नहीं हुआ था? तथा जब कुन्दकुन्द स्वयं कह रहे हैं कि मैं श्रुतकेवली के उपदेश के अनुसार कथन कर रहा हूँ , तो मालवणिया जी ने इसे किस आधार पर अमान्य किया है? इन प्रश्नों का समाधान करनेवाले प्रमाण मालवणिया जी के उपर्युक्त कथन में नहीं हैं। अतः सिद्ध है कि उनका वक्तव्य अप्रामाणिक है।
फलस्वरूप यही प्रामाणिक ठहरता है कि कुन्दकुन्द को उपयोगत्रय का उपदेश गुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ था। २.५. कर्तृत्व-अकर्तृत्व का निरूपण जिनागमाश्रित
मालवणिया जी का मत मालवणिया जी का कथन है कि कुन्दकुन्द ने सांख्यमत के समन्वय की दृष्टि
१३३. कुन्दकुन्द ने शुभ और अशुभ उपयोगों को ही अध्यवसान कहा है, शुद्धोपयोग को नहीं।
अध्यवसान को उन्होंने बन्ध का कारण बतलाया है और शुद्धोपयोग को मोक्ष का। (समयसार / गा. २६३-२६४)।
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