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________________ अ०१०/प्र०४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३४७ निरसन मालवणिया जी का यह आशय कुन्दकुन्द के कथन के सर्वथा विपरीत है। उनके कथन से ऐसा ध्वनित होता है कि जैसे लौकिकजन विष्णु को जगत्कर्ता मानते हैं, वैसे ही कुन्दकुन्द के कथनानुसार जैन भी व्यवहारनय से आत्मा को जगत्कर्ता मानते हैं। यह मन्तव्य नितान्त मिथ्या है। उपर्युक्त गाथाओं में जो कहा गया है, वह इस प्रकार है "लौकिक जन मानते हैं कि देवों, नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की सृष्टि विष्णु करते हैं, इसी प्रकार यदि श्रमण भी मानें कि षट्कायिक जीवों की सृष्टि आत्मा करता है, तो लौकिकों और श्रमणों का मत परकर्तृत्व की अपेक्षा समान ठहरेगा, उसमें कोई अन्तर दिखाई नहीं देगा। एक विष्णु को जगत्कर्ता मानता है, दूसरा आत्मा को। दोनों की जगत्कर्तृत्व-मान्यता मिथ्या है। इसलिए इस मिथ्या मान्यता के कारण लौकिकों और श्रमणों, दोनों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।" इस प्रकार उक्त गाथाओं में कुन्दकुन्द ने तो यह कहा है कि विष्णु और आत्मा के द्वारा जगत् की सृष्टि किये जाने की मान्यता जिनागम-विरुद्ध है। इस तरह जब कुन्दकुन्द ने दोनों मान्यताओं को निरस्त ही कर दिया है, तब समन्वय का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी दोनों सिद्धान्तों को अपसिद्धान्त१३२ कहकर स्पष्ट कर दिया है कि वे जिनागममान्य नहीं हैं। इसलिए विष्णु के जगत्कर्तृत्व की मान्यता का कुन्दकुन्द के द्वारा जैनदृष्टि से समन्वय किया गया है, यह कथन कुन्दकुन्द के मत के सर्वथा प्रतिकूल है। जहाँ कुन्दकुन्द कहते हैं कि विष्णु के जगत्कर्तृत्व की मान्यता और आत्मा के जगत्कर्तृत्व की मान्यता दोनों समानरूप से मिथ्या हैं, वहाँ मालवणिया जी कहते हैं कि कुन्दकुन्द ने इन दोनों मान्यताओं को व्यवहारनय की अपेक्षा समानरूप से सत्य बतलाया है। कितना विपरीत प्रस्तुतीकरण है! मालवणिया जी ने कुन्दकुन्द को विष्णु और आत्मा दोनों के सृष्टिकर्तृत्व को स्वीकार करनेवाला घोषित कर दिया है। इसे पढ़कर तो जैनदर्शन और कुन्दकुन्द के सम्प्रदाय की मामूली सी जानकारी रखनेवाले को भी हँसी आये बिना न रहेगी। द्रष्टव्य है कि उक्त गाथाओं में कुन्दकुन्द ने निश्चय-व्यवहार शब्दों का प्रयोग किया ही नहीं है। मालवणिया जी ने अपने ही मन से 'व्यवहारनय' शब्द जोड़कर कुन्दकुन्द पर स्वाभीष्ट कथन आरोपित कर दिया है। १३२. "ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते। लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोति इत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात्। ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः।" आत्मख्याति / समयसार / गा.३२१-३२३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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