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३४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०४ बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मई य विण्णाणं। .
एकट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो॥ २७१ ॥ स.सा.। इन गाथाओं में आत्मा और सुख के विशेषण के रूप में 'शाश्वत' शब्द का तथा बुद्धि, मति आदि के समानार्थी के रूप में 'विज्ञान' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे यहाँ 'शाश्वत' शब्द से 'शाश्वतवाद' और 'विज्ञान' शब्द से विज्ञानाद्वैतवाद का उल्लेख नहीं माना जा सकता, वैसे ही पंचास्तिकाय की उपर्युक्त गाथा में भी नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त गाथा में विरोधी वादों के समन्वय का न तो कोई प्रसंग है, न कोई प्रयोजन तथा आचार्य कुन्दकुन्द जैसे वीतराग एवं निर्भीक आचार्य के द्वारा किसी बहाने से उक्त समन्वय किये जाने का तो कोई औचित्य ही बुद्धिगम्य नहीं होता। इन समस्त प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध होता है कि मालवणिया जी की उक्त मान्यता सर्वथा निराधार है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय की 'सस्सदमध विच्छेद' इत्यादि गाथा में न तो विरोधी वादों का समन्वय किया है, न वे शून्यवाद एवं विज्ञानाद्वैतवाद से परिचित थे। अतः यह सिद्ध नहीं होता है कि वे तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति से उत्तरवर्ती थे। २.३. विष्णुकर्तृत्व और आत्मकर्तृत्व दोनों अपसिद्धान्त
मालवणिया जी का मत कुन्दकुन्द ने समयसार में ये तीन गाथाएँ कही हैं
लोगस्स कुणइ विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते। समणाणं पि य अप्पा जइ कुव्वइ छव्विहे काये॥ ३२१॥ लोगसमणाणमेयं सिद्धतं जइ ण दीसइ विसेसो। लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणइ॥ ३२२॥ एवं ण कोवि मोक्खो दीसइ लोयसमणाण दोण्हंपि।
णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए॥ ३२३॥ इनका आशय बतलाते हुए मालवणिया जी कहते हैं-"आचार्य ने विष्णु के जगत्कर्तृत्व के मन्तव्य का भी समन्वय जैनदृष्टि से करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है कि व्यवहारनय के आश्रय से जैनसम्मत जीवकर्तृत्व में और लोकसम्मत विष्णु के जगत्कर्तृत्व में विशेष अन्तर नहीं है। इन दोनों मन्तव्यों को यदि पारमार्थिक माना जाय, तब दोष यह होगा कि दोनों के मत से मोक्ष की कल्पना असंगत हो जायेगी।"(न्या.वा.व./ प्रस्ता./ पृ.१२९)।
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