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________________ अ०१०/प्र.४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३४५ का परित्याग नहीं करता, अर्थात् उन पर्यायों में वह अविच्छिन्नरूप से विद्यमान रहता है, अतः मनुष्यादिपर्यायों में अपने द्वारा किये गये पुण्यपाप के सुखदुःखरूप फल को वह देवादिपर्यायों में भोगता है। इस तरह द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है। किन्तु देव-मनुष्यादि पर्यायें स्वरूप की अपेक्षा एक दूसरे से अन्य-अन्य होती हैं, इसलिए पर्यायार्थिकनय से मनुष्यादिरूप जीव पुण्यपाप करता है और देवादिरूप जीव उनके सुख-दुःख रूप फल का भोग करता है। इस अपेक्षा से कर्ता अन्य होता है और भोक्ता अन्य।३१ इन उदाहरणों से प्रमाणित है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में जैनेतर वादों का कहीं भी समन्वय नहीं किया, अपितु निरसन ही किया है। अतः पंचास्तिकाय की उपर्युक्त गाथा में विरोधी वादों का समन्वय मानना प्रामाणिक नहीं है, वह मालवणिया जी की स्वकल्पित मान्यता है। इसलिए उनकी यह धारणा भी काल्पनिक है कि आचार्य कुन्दकुन्द नवीन विज्ञानाद्वैत और शून्यवाद से भी परिचित थे, अत एव वे उमास्वाति से परवर्ती हैं। पं० मालवणिया जी ने शब्दसाम्य के कारण उपर्युक्त गाथा में प्रयुक्त 'शाश्वत', 'उच्छेद' आदि जीवधर्म-वाचक शब्दों से शाश्वतवाद, उच्छेदवाद आदि जैनेतर दार्शनिक वादों का उल्लेख मान लिया है। यह उनकी महान् भ्रान्ति है। ये शब्द तो संस्कृत, पालि और प्राकृत साहित्य में नित्य, अनित्य आदि के अर्थ में बहुशः प्रयुक्त हुए हैं। 'शाश्वत', 'विज्ञान' शब्दों का प्रयोग तो 'नित्य' और 'ज्ञान' के अर्थ में आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं किया है। यथा एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ ५९॥ भा.पा.। भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव। लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं॥ ६०॥ भा.पा.। १३१. उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वं हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥ २/९॥ प्रवचनसार। जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो। किं दव्वत्तं पजहदि ण चयदि अण्णो कहं हवदि॥ २/२०॥ प्रवचनसार। मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि॥ २/२१॥ प्रवचनसार। दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो। हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो॥ २/२२॥ प्रवचनसार। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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