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३४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०४ "और जिसका ऐसा एकान्त सिद्धान्त है कि जो जीव कर्ता होता है, वही जीव भोक्ता नहीं होता, वह मिथ्यादृष्टि है, अरहंत के मत का अनुयायी नहीं है।" (३४७)।
"तथा जो एकान्तरूप से ऐसा मानता है कि कर्ता कोई और होता है और भोक्ता कोई और, वह मिथ्यादृष्टि है, आर्हतमत का नहीं है।" (३४८)।
कथन का अभिप्राय यह है कि बौद्धमत एकान्त क्षणिकवादी है। उसके अनुसार सभी शरीरधारियों में रूप (रूप, रस आदि विषय), वेदना (सुख-दुःखानुभूति), विज्ञान (जानने की शक्ति), संज्ञा (मनुष्यादि नाम) और संस्कार (पुण्य-पापादि) ये पाँच स्कन्ध होते हैं, आत्मा नहीं होती। ये ही परलोक में जाते हैं।१३० ये पाँचों स्कन्ध क्षणिक हैं, अर्थात एक ही क्षण तक ठहरते हैं और दूसरे क्षण में विनष्ट हो जाते हैं।१३० किन्तु जैसे दीपक की पूर्वक्षणवर्ती ज्योति के नष्ट होने पर उत्तरक्षण में वैसी ही नयी ज्योति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार पूर्वक्षणवर्ती पंचस्कन्धरूप शरीरधारी के नष्ट होने पर उत्तरक्षण में वैसा ही पंचस्कन्धरूप नया शरीरधारी उत्पन्न हो जाता है।३०
और यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक अन्तिम शरीरधारी का निर्वाण नहीं हो जाता। यतः पूर्वक्षणवर्ती पंचस्कन्धरूप शरीरधारी उत्तरक्षण में नष्ट हो जाता है, अतः वह अपने किये हुए पुण्यपाप का फल भोगने के लिए अवसर प्राप्त नहीं करता। इसलिए वह कर्ता ही होता है, भोक्ता नहीं। और चूँकि उत्तरक्षण में उत्पन्न हुए वैसे ही नये शरीरधारी को पूर्वक्षणवर्ती शरीरधारी के सदृश पुण्यपापरूप संस्कारस्कन्ध प्राप्त होता है, अतः वह उनका कर्ता न होते हुए भी भोक्ता होता है। इस तरह बौद्धमतानुसार कर्ता अन्य होता है और भोक्ता अन्य।
इसे अस्वीकार करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि प्रत्येक जीव द्रव्य की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य होता है। वह भिन्न-भिन्न कालों में देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारक पर्यायें धारण करता है, किन्तु अपने द्रव्यस्वरूप
१३०.क- "सौत्रान्तिकमतं पुनरिदम्-रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराः सर्वशरीरिणामेते पञ्चस्कन्धा
विद्यन्ते, न पुनरात्मा। त एव हि परलोकगामिनः।" षड्दर्शनसमुच्चय/तर्करहस्यदीपिका/
बौद्धमत / कारिका ११/पृ. ७३। ख-"ते च पञ्च स्कन्धाः क्षणमात्रावस्थायिन एव।" वही/कारिका ५ / पृ. ४२। ग-"ननु यदि क्षणक्षयिणो भावाः कथं तर्हि 'स एवायम्' इति ज्ञानम्? उच्यते
निरन्तरसदृशापरापरक्षण-निरीक्षणचैतन्योदयादविद्यानुबन्धाच्च पूर्वक्षणप्रलयकाल एव दीपकलिकायां दीपकलिकान्तरमिव तत्सदृशमपरं क्षणान्तरमुदयते, तेन समानाकार-ज्ञानपरम्परापरिचय-चिरतर-परिणामान्निरन्तरोदयाच्च पूर्वक्षणानामत्यन्तोच्छेदेऽपि स एवायमित्यध्यवसायः प्रसभं प्रादुर्भवति।" वही / कारिका ७ / पृ. ४८-४९ ।
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