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________________ अ०१०/प्र०४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३४३ पता चलता है कि वे केवल पुराने शाश्वत और उच्छेदवाद से ही नहीं, बल्कि नवीन विज्ञानाद्वैत और शून्यवाद से भी परिचित थे।" (न्या.वा.व./ प्रस्ता. / पृ.१२८)। निरसन मालवणिया जी का यह कथन समीचीन नहीं है। इस गाथा में वर्णित 'शाश्वत', 'उच्छेद' आदि परस्परविरोधी वाद नहीं हैं, अपितु जीवद्रव्य के परस्परविरुद्ध धर्मयुगल हैं। अतः यहाँ परस्पर विरोधी वादों के समन्वय का प्रश्न ही नहीं उठता। इस गाथा में तो 'शाश्वत', 'उच्छेद' आदि परस्परविरुद्ध धर्मयुगलों के अस्तित्व से मुक्ति में जीव का अस्तित्व सिद्ध किया गया है, क्योंकि इन धर्मयुगलों का अस्तित्व मुक्ति में जीव के अस्तित्व के बिना संभव नहीं है। और मुक्ति में जीव का अस्तित्व सिद्ध कर आचार्य कुन्दकुन्द ने 'जीव का अभाव मुक्ति है' इस बौद्धमत का जिनागम के अनुसार निरसन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में भी जिनागम के आधार पर जीव को अपेक्षाभेद से कर्ता और अकर्ता दोनों सिद्ध कर 'जीव सर्वथा अकर्ता है' इस सांख्यमत को अस्वीकार किया है। (देखिए , आगे शीर्षक २.६)। इसी प्रकार 'जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है' तथा 'कर्ता अन्य होता है और भोक्ता अन्य' इन दोनों मतों को अपेक्षाभेद से सत्य सिद्ध करते हुए 'कर्ता अन्य ही होता है और भोक्ता अन्य ही' इस एकान्त बौद्धमत का निरसन किया है। देखिये समयसार की ये गाथाएँ केहिंचि दु पज्जयेहिं विणस्सए व केहिंचि दु जीवो। जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो॥ ३४५॥ केहिंचि दु पज्जयेहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो। जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो॥ ३४६॥ जो चेव कुणइ सो चिय ण वेयए जस्स एस सिद्धंतो। सो जीवो णायव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो॥ ३४७॥ अण्णो करेइ अण्णो परिभुंजइ जस्स एस सिद्धंतो। सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो॥ ३४८॥ अनुवाद-"जीव कितनी ही पर्यायों से तो विनष्ट होता है और कितनी ही पर्यायों से नहीं होता। इसलिए वही जीव कर्ता होता है या अन्य, इस विषय में एकान्त नहीं है (अर्थात् वही जीव भी कर्ता हो सकता है और अन्य जीव भी)।" (३४५)। "जीव कितनी ही पर्यायों से तो नष्ट होता है और कितनी ही पर्यायों से नहीं होता। इसलिए वही जीव भोक्ता होता है या अन्य, इस विषय में एकान्त नहीं है (अर्थात् वही जीव भी भोक्ता हो सकता है और अन्य जीव भी)।" (३४६)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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